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*दादू पखा पखी संसार सब, निर्पख विरला कोइ ।*
*सोई निर्पख होइगा, जाके नाम निरंजन होइ ॥*
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टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*खालसे का अंग १९२*
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दादू दरिया रामा१ नदी, दह२ दिशि आय मिलैं बहि३ बंदी४ ।
गाजै५ घोरै जब लग दूरी, मिलत सु मुख बोलैं नहिं मूरी६ ॥५॥
जैसे समुद्र में दशों२ दिशाओं से बहती३ हुई नदियाँ आकर मिलती हैं, वे जब तक समुद्र से दूर रहती हैं तब तक तो घोर गर्जना५ करती हैं किंतु समुद्र में मिलती हैं तब कुछ भी ध्वनी नहीं करतीं । वैसे ही दादूजी के पास दर्शनार्थ दशों दिशाओं से सुन्दर नारियाँ१ आती हैं, वे दूर ही रहती हैं तब तक तो अपने हावभाव पूर्ण वचनों का व्यवहार करती हैं किंतु दादूजी के पास आते ही वे नारियाँ४ किंचित६ भी मुख से नहीं बोलती । अत: दादूजी पर किसी का भी अधिकार नहीं होता ।
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मथुरा में माला खुली, तिलक ऊतरे मंथ१ ।
रज्जब छूटे रामजन२, पड़ि दादू के पंथ३ ॥६॥
एक समय मथुरा के एक मुसलमान शासक ने, यह आज्ञा दी थी कि - "जो माला तिलक रक्खेगा उसे प्राणान्त दंड दिया जायेगा ।" तब वहां के सभी राम भक्त२ "माला तिलक के बिना ही भजन करना चाहिये" दादूजी के इस सिद्धांत रूप पंथ में आकर ही अर्थत् माला तथा मस्तक१ से तिलक त्याग कर ही प्राणान्त दण्ड से मुक्त हुये थे । अत: दादूजी का मत शुद्ध है ।
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वपु विगंध जो जीवत हुं, मूये क्यों न गंधाय ।
रज्जब देखो दीप दिशि, बुझत न सूंघा जाय ॥७॥
शरीर में जीवित रहते भी दुर्गंध आती है तब मरने पर दुर्गंध कैसे नहीं आयेगी ? दीपक की और देखो, जब बुझता है तब उसमे इतनी दुर्गंध आती है कि सूंघा भी नहीं जाता । अत: शरीर में भी यह खास बात है कि - वह दुर्गंध को नहीं छोड़ता ।
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कुम्हार कुम्हारी मातु पितु, खाना१ मई२ सु खोड़ि३ ।
रज्जब बालक बाल वपु, वस्तु सके नहिं जोड़ि४ ॥८॥
जिसके माता-पिता कुम्हार-कुम्हरिन हैं, शरीर३ खानि१ की मिट्टी रूप२ है, उस खलौना रूप बालक का वह बालक शरीर दीखता तो है किंतु किसी की आज्ञा से वस्तुओं को एक दूसरी से मिला४ तो नहीं सकता । उस पर किसी की आज्ञा नहीं चलती ।
(क्रमशः)

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