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*आप निरंजन ह्वै रह्या, काइमां कौतिकहार ।*
*दादू निर्गुण गुण कहै, जाऊँली हौं बलिहार ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद्यांश. ४२८)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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भक्तगण इसी तरह की चिन्ताएँ कर रहे हैं । केशव के बारे में बातचीत करके श्रीरामकृष्ण और दो-एक संसारी भक्तों की बातें कह रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (महिमाचरण से) - फिर 'सेजोबाबू' के साथ देवेन्द्रबाबू से मिलने गया था । सेजोबाबू से मैंने कहा, 'सुना है, देवेन्द्र ठाकुर(रवीन्द्रनाथ के पिता) ईश्वर की चिन्ता करता है, उसे देखने की मेरी इच्छा होती है ।’
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सेजोबाबू ने कहा, 'अच्छा बाबा, मैं तुम्हे ले जाऊँगा, हम दोनों हिन्दू कालेज में एक साथ पढ़ते थे, मेरे साथ बड़ी घनिष्ठता है ।’ सेजोबाबू से उनकी बहुत दिन बाद मुलाकात हुई । सेजोबाबू को देखकर देवेन्द्र ने कहा, 'तुम्हारा शरीर कुछ बदल गया है, तुम्हारे कुछ तोंद निकल आयी है ।’
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सेजोबाबू ने मेरी बात कही । उन्होंने कहा, 'ये तुम्हें देखने के लिए आये हैं, ये ईश्वर के लिए पागल हो रहे हैं । लक्षण देखने के लिए मैंने देवेन्द्र से कहा, 'देखें जी तुम्हारी देह ।' देवेन्द्र ने देह से कुर्ता उतार डाला । मैंने देखा, गोरा रंग, तिस पर सेंदूर-सा लगाया हुआ, तब देवेन्द्र के बाल नहीं पके थे ।
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"पहले पहल मैंने उसमें कुछ अभिमान देखा था । होना भी चाहिए इतना ऐश्वर्य है, विद्या है, मान है । अभिमान देखकर सेजोबाबू से मैंने पूछा, 'अच्छा, अभिमान ज्ञान से होता है या अज्ञान से ? जिसे ब्रह्मज्ञान हो जाता है, उसे क्या 'मैं पण्डित हूँ, मैं ज्ञानी हूँ, मैं धनी हूँ, इस तरह का अभिमान हो सकता है ?’
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"देवेन्द्र के साथ बातचीत करते हुए एकाएक मेरी वही अवस्था हो गयी । उस अवस्था के होने पर कौन आदमी कैसा है, यह मैं स्पष्ट देखता हूँ । मेरे भीतर से हँसी उमड़ पड़ी । जब यह अवस्था होती है तब पण्डित-फण्डित सब तिनके से जान पड़ते हैं । जब देखता हूँ, पण्डित में विवेक और वैराग्य नहीं है, तब वे सब घास-फूस जैसे जान पड़ते हैं । तब यही दिखता है कि गीध बहुत ऊँचे उड़ रहा है परन्तु उसकी नजर नीचे मरघट पर ही लगी हुई है ।
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“देखा योग और भोग दोनों हैं, छोटे छोटे बहुत से लड़के थे, डाक्टर आया हुआ था - इसीसे सिद्ध है कि इतना ज्ञानी तो है, परन्तु संसार में रहना पड़ता है । मैंने कहा - 'तुम कलिकाल के जनक हो । जनक इधर-उधर दोनों ओर रहकर दूध का कटोरा खाली किया करते थे । मैंने सुना था, तुम संसार में रहकर भी ईश्वर पर मन लगाये हुए हो, इसीलिए तुम्हें देखने आया हूँ, मुझे कुछ ईश्वर की बातें सुनाओ ।"
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"तब वेद से कुछ अंश उसने सुनाये । कहा, 'यह संसार एक दीपक के पेड़ के समान है और प्रत्येक जीव इस पेड़ का एक एक दीपक है ।' मैं जब यहाँ ध्यान करता था, तब बिलकुल इसी तरह देखता था । देवेन्द्र की बात से मेल हुआ, देखकर मैंने सोचा, तब तो यह बहुत बड़ा आदमी है । मैंने उसे व्याख्या करने के लिए कहा ।
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उसने कहा, 'इस संसार को पहले कौन जानता था ? - ईश्वर ने अपनी महिमा को प्रकाशित कर दिखाने के उद्देश्य से मनुष्य की सृष्टि की । पेड़ के उजाले के न रहने पर सब अँधेरा हो जाता है, पेड़ भी नहीं दिख पड़ता ।'
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“बहुत कुछ बातें होने के बाद देवेन्द्र ने खुश होकर कहा, 'आपको उत्सव में आना होगा ।' मैंने कहा, 'वह ईश्वर की इच्छा; मेरी यह अवस्था तो देख ही रहे हो - वे कभी किसी भाव में रखते हैं, कभी किसी भाव में ।'
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देवेन्द्र ने कहा, 'नहीं, आना ही होगा । परन्तु धोती और चद्दर ये दोनों कपड़े आप जरूर पहने हुए हों, आपको ऊलजलूल देखकर अगर किसी ने कुछ कह दिया तो मुझे बड़ा कष्ट होगा ।' मैंने कहा, 'यह मुझसे न होगा, मैं बाबू न बन सकूगा !' देवेन्द्र और सेजोबाबू हँसने लगे ।
(क्रमशः)

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