सोमवार, 25 अप्रैल 2022

*श्री रज्जबवाणी पद ~ ४*

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*प्राण तरुवर सुरति जड़, ब्रह्म भूमि ता मांहि ।*
*रस पीवै फूलै फलै, दादू सूखै नांहि ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
अथ राग राम गिरी(कली) १, गायन समय प्रातः ३ से ५
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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४. ब्रह्म वृक्ष । त्रिताल
संतो वसुधा१ वृक्ष समाई,
अद्भुत बात कही को माने, 
कोण पतीजे२ भाई ॥टेक॥
मूल न डाल सो अधर अंध्रिपा३, 
बेलि कहां बिलमावे४ ।
तरुवर त्वचा विहूणा५ देखा, 
विहंग६ न बैठण पावे ॥१॥
रहता७ रूंख फूल फल नांहीं, 
त्रिगुण न गूंद प्रकाशे८ ।
दीरघ९ द्रुम देखेगा कोई, 
छाया तिमिर१० न भासे ॥२॥
अकल वृक्ष कंटक कर नांहीं, 
पारिजात११ पद१२ पूरा ।
जन रज्जब जग जग सो निश्चल, 
सब की जीवन मूरा१३ ॥३॥४॥
ब्रह्म का वृक्ष रूप से परिचय से रहे हैं -
✦ हे संतो ! यह अखिल पृथ्वी१ वृक्ष(ब्रह्म) में समाई हुई है । यह बात हमने आश्चर्य रूप कही है । इसे कौन भाई मानेगा और कौन विश्वास२ करेगा ?
✦ उस वृक्ष के जड़ और शाखा नहीं है अर्थात उसका कारण और कार्य कोई नहीं है । यह आश्रय रहित अधर वृक्ष३ है, फिर उस पर माया रूप बेलि कैसे ठहर४ सकती है ? यह वृक्ष तत्व रूप त्वचा(छाल) से रहित५ है । इस अचल७ वृक्ष पर भोगाशा रूप पक्ष वाला जीव रूप पक्षी६ नहीं बैठ पाता कारण ...
✦ उसमें इन्द्रिय विषय रूप फूल फल नहीं है । त्रिगुण रूप गूंद इससे प्रकट८ नहीं होता । इस विशाल९ ब्रह्म वृक्ष को कोई बिरला ज्ञानी ही देख सकेगा । इसके ब्रह्म विचार रूप छाया में अज्ञान रूप अंधेरा१० नहीं भासता ।
✦ इस कला विभाग रहित ब्रह्म वृक्ष में कर्म रूप कांटे नहीं होते । यह वृक्ष११ पूर्ण स्वरुप१२ है । प्रति युग में निश्चल रहता है और सबके जीवन का मूल१३ हेतु है । 
(क्रमशः)

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