सोमवार, 25 अप्रैल 2022

*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१८७)*

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१८७)*
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*१८७. हितोपदेश । शूलताल*
*सन्मुख भइला रे, तब दुख गइला रे, ते मेरे प्राण अधारी ।*
*निराकार निरंजन देवा रे, लेवा तेह विचारी ॥टेक॥*
*अपरम्पार परम निज सोई, अलख तोर विस्तारं ।*
*अंकुर बीजे सहज समाना रे, ऐसा समर्थ सारं ॥१॥*
*जे तैं किन्हा किन्हि इक चीन्हा रे, भइला ते परिमाणं ।*
*अविगत तोरी विगति न जाणूं , मैं मूरख अयानं ॥२॥*
*सहजैं तोरा ए मन मोरा, साधन सौं रंग आई ।*
*दादू तोरी गति नहिं जानैं, निर्वाहो कर लाई ॥३॥*
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भा०दी० - हे मम प्राणाधारप्रभो ! यदा जीवस्त्वत्समक्षमागच्छति (शरणागतो) भवति, तदैव तस्य सर्वदुःखप्रहाणिर्जायते । हे निरंजन निराकार परमात्मन् त्वमेव सर्वप्राणिनामन्तस्तिष्ठसि ।
हे इन्द्रियातीत प्रभो! अस्य जगतो विस्तारस्त्वयैव विहितः । बीजे यथा सूक्ष्माङ्कुरो विलीनस्तिष्ठति तथैव तवस्वरूपेजगदिदमव्यक्तमस्ति । अतस्त्वं सर्वशक्तिसंपन्नो जगत: सारभूतोऽसि । यो हि त्वत्स्वरूपं जगदिदं तव मायया कृतमिति वेत्ति स ब्रह्मरूपो भवति ।
अहन्तु तव विशिष्टं रूपं न जानामि, अज्ञत्वात्, तथापि मे मनस्त्वत्स्वरूपे लीनमस्ति, तथाऽपि तव गतिन्तु न वेदिम । अतस्त्वमेव मे निजरूपं प्रदानुगृहाण, संसारात्यारं विधेहि ।
उक्तञ्च पापुराणे- स्वर्ग--
हरिभक्तिश्च लोकेऽत्र दुर्लभा हि मतं मम ।
हरौ यस्य भवेद् भक्ति: स: कृतार्थो न संशयः ॥
तत्तदेवाचरेत्कर्म हरिः प्रीणाति येन हि ।
तस्मिंस्तुष्टे जगत्तुष्टं प्रीणिते प्रीणितं जगत्॥
हरौ भक्ति विना नृणां वृथाजन्म प्रकीर्तितम् ।
ब्रह्मादयः सुरा यस्य यजन्ते प्रीतिहेतवे॥
नारायणमनाद्यन्तं तं सेवेत को जनः ।
तस्य माता महामान्या पिता तस्य महाकृती ॥
जनार्दन जगद्वन्द्य शरणागतवत्सल ।
इतीरयन्ति ये मा न तेषां निरये गतिः ॥
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हे मेरे प्राणाधार प्रभो ! जब जीव तेरे सन्मुख(शरणागत) हो जाता है, उसी क्षण उसके सब दुःख विलीन हो जाते हैं । हे निरंजन निराकार अपरंपार परमात्मन् ! आप सब प्राणियों के निज रूप हैं । हे इन्द्रियातीत प्रभो ! यह जगत् आप द्वारा विस्तार किया हुआ है, जैसे बीज में सूक्ष्म रूप से अंकुर गुप्त रहता है, वैसे ही यह सारा संसार अव्यक्तरूप से आप में स्थित है ।
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अतः आप सर्वसमर्थ जगत् के सार रूप हैं । यह जगत् यद्यपि मायाकृत है तो भी आपका ही स्वरूप है, ऐसा जानने वाले बहुत थोड़े ही हैं । जो इस जगत् को ब्रहमरूप से जानता है, वह ब्रह्मरूप हो जाता है । मैं तो अज्ञानी होने से आपके विशेषरूप को नहीं जानता । यद्यपि यह मेरा मन साधना भक्ति के द्वारा आप में लीन है तथापि आप अपना निज रूप दिखाकर इस भाव-सागर से पार करो ।
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मेरे मत से हरि की भक्ति दुर्लभ है । जिसने उसकी भक्ति की है, वह निःसंशय कृतार्थ हो गया । कर्म वही करना चाहिये हरि प्रसन्न हो और उसके प्रसन्न होने से जगत् संतुष्ट हो जाता है । अतः हरिभक्ति के बिना मनुष्यों का जन्म व्यर्थ ही माना गया है । आदि-अन्त से रहित जिस नारायण को प्रसन्न करने के लिये ब्रहमा आदि देवता पूजा करते रहते हैं, उस भगवान् को भला कौन नहीं भजेगा?
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“हे जगद्वंध्य, हे जनार्दन, हे शरणागत, वत्सल” इस तरह जो पुकारते रहते हैं, जिसने शरणागत-वत्सल जगद्वंध्य परमात्मा की भक्ति की है, उसके माता-पिता महाभाग्यशाली हैं और वह भक्त भी कृतकृत्य है, ऐसा लोग कहते हैं और वे कभी भी नरकगामी नहीं होते ।
(क्रमशः)

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