गुरुवार, 7 अप्रैल 2022

*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ४१/४४*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ४१/४४*
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कहि जगजीवन रांमजी, पृथिवि प्रमांण अकास ।
सब प्रवांण अप्रवांण हरि, नांउं निरंजन जास ॥४१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सब का प्रमाण है, यथा पृथ्वी, आकाश, तक सब दृश्य प्रमाणिक है । किंतु हरि ही अदृश्य है जिनको हम इंगित नहीं कर सकते वे निरंजन है ।
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अगह गहै सो अकह कहि, हरि भजि सुन्नि४ समाइ ।
कहि जगजीवन ग्रिही कहि, ते क्रित तहां न माइ ॥४२॥
{४. सुन्नि=शून्य(निर्वाण या ब्रह्म) पद}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो अगाह्य है फिर भी वह सब ग्रहण करने का होता है ऐसे प्रभु को जो शून्य में समाये हैं, का भजन करें । जो उन प्रभु को ग्रहण करना है वह कोइ क्रिया नहीं भाव है ।
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अगह अलेख अगाध हरि, रांम निरंजन नूर ।
कहि जगजीवन सकल मंहि, सकल कहै भरपूर ॥४३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वह अगह परमात्मा अलेख है, अगाध है उनकी कोइ सीमा नहीं है । वे तेज में समाहित हैं । संत कहते हैं कि सर्वत्र वे ही है जो भरपूर हैं ।
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सतजुग द्वापर त्रेता कलिजुग, चहुँ जुग च्यारौं बेद ।
कहि जगजीवन वेद विधि(गुर), भाव भगति हरिभेद ॥४४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सतयुग द्वापर, व त्रेतायुग में, चारों युग व चारों वेदों में व वेद विधि में परमात्मा का भाव व भक्ति व स्वरूप भेद ही कहे गये हैं ।
(क्रमशः)

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