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*दादू सोई सेवक राम का, जिसे न दूजी चिंत ।*
*दूजा को भावै नहीं, एक पियारा मिंत ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*ज्ञानदेवजी की पद्य टीका*
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*इन्दव –*
*ज्ञान हि देव सु शंकर पद्धति,*
*चित्त गंभीर हु बात सुनीजे ।*
*त्याग पिता घर धारि संन्यास हि,*
*झूठ कही तिय नांहिं तु लीजे ॥*
*आत तिया सुन पाछ हि दौरत,*
*लापर१ है मुख आगर कीजे ।*
*ल्यात भई घर जाति रिसावत,*
*पांति निवारत कोउ न छीजे ॥२१२॥*
ज्ञान देवजी शंकर भगवान् की श्रेष्ठ पद्धति के अनुयायी थे और बड़े ही गंभीर चित्त वाले थे ।
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इनके पिता घर छोड़कर काशी चले गये थे, संन्यास लेना चाहा तब यह प्रश्न उठा कि तुम्हारी पत्नी की अनुमति है ? तब इनने झूठ ही कह दिया मेरे पत्नी नहीं है । तब देने वाले यति जी ने कहा तो लेलो ।
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नारि सुनकर दौड़ आई और यति जी से प्रार्थना की । यति ने यह कहकर कि इनने लापरवाही१ की है, उनको स्त्री के मुख के आगे कर दिया ।
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नारी उनको लेकर आई तब जाति वालों ने रुष्ट होकर इनको जाति पांति से अलग कर दिया । कोई भी इनको भोजनादि के समय नहीं छूता था ।
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विशेष कथा – पैठण से चार कोस दूर, गोदावरी के उत्तर तट पर आपका गाँव है । वहां तेरहवी विक्रमी शताब्दी के आरम्भ में त्र्यम्बकपन्त वत्सगोत्री ब्राह्मण रहते थे । ये देवगिरि के यादवराज की ओर से बीड़ देश के देशाधिकारी थे । इनके दो पुत्र थे, गोविन्द पन्त और हरिपन्त ।
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गोविन्द पन्त के निराबाई के गर्भ से विट्ठलपन्त का जन्म हुआ था । विट्ठल पन्त विद्याध्यनन करके द्वारावती, सोमनाथ, पण्ढरपुर आदि तीर्थों की यात्रा करते हुये आलंदी पहुँचे । वहां के सिद्धोपन्त विद्वान ब्राह्मण ने इनकी विद्या, वैराग्य और तेज को देखकर अपनी पुत्री रुक्मिणी का विवाह इनके साथ कर दिया ।
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विवाह के कुछ समय पश्चात् माता पिता का देहान्त हो गया, तब पुनः श्वसुर के बहुत आग्रह करने पर ये सस्त्रीक आलंदी में ही रहने लगे । विट्ठलपन्त विरक्त तो बचपन से ही थे । अब उनको स्त्री के साथ रहना अच्छा नहीं लग रहा था । स्त्री की अनुमति बिना संन्यास ले नहीं सकते थे ।
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एक दिन रुक्मिणी बाई किसी काम में व्यस्त थी । विट्ठलपन्त ने अवसर जानकर कहा – मैं गंगा स्नान के लिये जाना चाहता हूँ । रुक्मिणी ने कहा – जाइये । अनुमति मिलने पर वे चल कर सीधे काशी पहुँचे और श्रीपादस्वामी से संन्यास दीक्षा लेकर चैतन्याश्रम स्वामी बन कर वहां ही ठहर गये । रुक्मिणी को भी पति वियोग का बड़ा दुःख रहने लगा ।
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कुछ समय के पश्चात् रुक्मिणी को पता लग गया कि पतिदेव ने संन्यास ले लिया । तब इसने भी तपस्या आरम्भ कर दी । कुछ समय के पीछे यात्रा करते हुये श्रीपादस्वामी आलंदी पहुँचे । तब अन्यान्य दर्शनार्थियों के समान रुक्मिणी भी उनके दर्शन करने गई और जाकर प्रणाम किया तब श्रीपादस्वामी ने ‘पुत्रवती हो’ कह कर आशीर्वाद दिया ।
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इस पर रुक्मिणी हँस पड़ी । हँसने का कारण पूछने पर रुक्मिणी ने अपनी सब कथा कह सुनाई । श्रीपादस्वामी ने काशी जाकर चैतन्याश्रम को समझाकर पुनः विट्ठलपन्त बना कर घर भेजा और कहा – इससे तुम्हारा कल्याण होगा । यही भगवान् का आदेश है । वे आलंदी आ गये । रुक्मिणी के आनन्द का वारापार न रहा ।
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भगवान् के आदेश और गुरु की आज्ञा से जो कुछ हुआ सो ठीक ही हुआ किन्तु शास्त्र विरुद्ध होने से समाज ने विट्ठलपन्त और उनके घर वालों को बहिष्कार कर दिया । घर वाले भी समाज के भय या स्नेह से एक-एक करके अलग हो गये । इसी अवस्था में दो दो वर्ष के अन्तर से इनके चार संतानें हुई ।
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संवत् १३३० फाल्गुन कृ. १ को निवृत्तिनाथ का जन्म हुआ । संवत १३३२ भाद्र कृष्णाष्टमी की मध्य रात्रि में ज्ञानदेव का जन्म हुआ । संवत १३३४ कार्तिक शु. पूर्णिमा की रात्रि में सोपानदेव का जन्म हुआ । संवत १३३६ की आश्विन शु. एकम को मध्यान्ह में मुक्ताबाई का जन्म हुआ ।
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निवृत्तिनाथ सात वर्ष के हुये तब माता पिता को उनके उपनयन की चिन्ता हुई किन्तु संन्यास लेने के पश्चात् पुनः गृहस्थ होने वाले के संतान के उपनयन की कोई विधि नहीं मिली । विट्ठलपन्त निराश स्त्री पुत्रों को साथ लेकर त्र्यम्बकेश्वर गये । वहां वे प्रतिदिन मध्य रात्रि में कुशावर्त्त तीर्थ में स्नान करके ब्रह्मगिरि की पूरी सव्य परिक्रमा करते थे ।
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एक दिन परिक्रमा करते समय बाघ सामने आ जाने से निवृत्तिनाथ माता पिता से बिछुड़ कर गैनीनाथ की गुहा में पहुंच गये । गैनीनाथ ने उन पर अनुग्रह किया । विट्ठलपन्त को अन्त में समाज से यही व्यवस्था मिली कि संन्यास से पुनः गृहस्थ बनने से जो पाप है, उसकी निष्कृति देहान्त प्रायश्चित से ही हो सकती है ।
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विट्ठलपन्त इसके लिये रुक्मिणी के सहित तैयार हो गये किन्तु रुक्मिणी का हृदय बच्चों के प्रेम से विदीर्ण होने लगा । तब सिद्ध पुरुष गैनीनाथजी ने प्रकट होकर कहा – तुम्हारे बालक कोई सामान्य बालक नहीं हैं । ये अनुक्रम से - शिव, विष्णु, ब्रहमा और आदि माया हैं । तब शान्त होकर गैनीनाथजी को सौंपकर चले गये ।
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प्रयाग में जाकर त्रिवेणी-संगम में जल समाधि ले ली । इधर गैनीनाथ ने निवृत्तिनाथ को उपदेश दिया फिर गैनी के सामने ही निवृत्तिनाथ ने अपने दोनों भाई और बहिन को उपदेश दिया । गैनीनाथ ने इन चारों को पैठण भेज दिया ।
(क्रमशः)
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