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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ४९/५२*
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कहि जगजीवन एक हरि, आंन अनेक सरीर ।
अंबु उतपति अस्थूल जस, नाद सकति थैं नीर ॥४९ ॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु सिर्फ एक है शेष सब देह है । जैसे जल उद्गम तो दिखता है पर उसका निनांद जो है वह ही जल प्रवाह है ।
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तेज पुंज हरि रांमजी, अनंत किरण प्रकास ।
अविगत अलख अगाध लिखि, सु कहि जगजीवनदास ॥५०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरि स्वयं तेजोमय हैं जो अनंत किरणों के रुप में प्रकीर्ण हैं । फैले हैं । तभी उन्हें जानने से, लिखे जाने से, सीमा से परे कहा जाता है उनकी व्यापकता का कोइ मानक नहीं हैं ।
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रांम नांम कहि तो ह्रिदै, रवि ससि अनंत प्रकास ।
तेजपुंज महिं आतमा, सु कहि जगजीवनदास ॥५१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम नाम कहने मात्र से ही ह्रदय में सूर्य चंद्र जैसा अनंत प्रकाश होता है । और फिर उसी तेजोमय स्वरूप या प़ुज में आत्मा निवसति है ।
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कहि जगजीवन जनम धरि, चरित किये नहिं आइ ।
अपरमपार अगाध हरि, नां तिहिं बाप न माइ* ॥५२॥
*. यहाँ मूल प्रतिलिपि में इसी अंग की १२वीं साषी पुनरावृत है ।
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हम इस संसार में जन्म लेकर सिर्फ भांति भांति के चरित्र निर्वहन करने ही नहीं आये हैं हमें यहां कर सत्कर्म करने हैं तभी वे प्रभु मुक्ति देंगे वे हमारे संसारिक माता पिता की भांति नहीं हैं जो हमारी अकर्मण्यता को भी नहीं देखेंगे वे प्रभु तो अपरम्पार व अगाध हैं ।
(क्रमशः)
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