मंगलवार, 5 अप्रैल 2022

*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ३७/४०*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ३७/४०*
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जगजीवन तहां आइ करि, सेव निरंजन राइ ।
इक अध्यातम जोग हरि, मधि घर रहै समाइ ॥३७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जहाँ जाकर प्रभु की सेवा हो । यह अध्यात्म संयोग ही है कि वह प्रभु के घर में ही समाये रहते हैं ।
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मधि घर मन कूं राखिये, तहँ तन सहज बिलाइ ।
कहि जगजीवन अमर पद, अबिगति परस्यां पाइ ॥३८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मध्य अर्थात प्रभु के घर के मध्य मन को रखें वहाँ देह धर्म सहज ही छूट जाता है और प्रभु सानिध्य से अमर पद प्राप्त होता है ।
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अबिगति३ परस्यां अमर पद३, जन पावै जे लीन ।
कहि जगजीवन मिलि रहै, ज्यू जल मांहै मीन ॥३९॥
{३=३. अबिगति परस्यां अमर पद=अविनाशी, अमर(निर्वाण) पद का स्पर्श(साक्षात्कार) कर लेने पर}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अविनाशी अमर पद पाकर जो जन प्रभु में ही लीन रहते हैं वे परमात्मा से ऐसे मिले रहते हैं जैसे जल से मछली का जीवन है । बिना जल वह शून्य है ।
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कहि जगजीवन ब्रह्म सुत, सार सबद मंहि सीर ।
दधि मथि दधि मंहि रांम रमि, पीवै अम्रित नीर ॥४०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो ब्रह्म के पुत्र या भक्त हैं वे सब उनके कहे गये वचनों में ही रहते हैं । जैसे दही को मथने से जो सार रुप में घी निकलता है वह उसमें ही स्थित होता है । ऐसे जीव जब जप तप द्वारा स्वंय का मंथन कर लेता है तो अमरत्व प्राप्त होता है ।
(क्रमशः)

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