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*हो ऐसा ज्ञान ध्यान, गुरु बिना क्यों पावै ।*
*वार पार, पार वार, दुस्तर तिर आवै हो ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद. २६४)
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
अथ राग राम गिरी(कली) १, गायन समय प्रातः ३ से ५
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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२. गुरु-गोविन्द से प्रीति-प्रेरणा । एकताल
प्रीति गुरु गोविन्द सौं, ऐसी बिधि कीजे ।
आदि अंत मधि एक रस, जुग जुग सुख लीजे ॥टेक॥
पिंड प्राण न्यारा भये, सो नेह न नाशै ।
बेलि कली ज्यों जाय की, टूट्यों परकाशै१ ॥१॥
ज्यों हनुमत हित२ जत३ सौं, जड्या४ सई५ सो साचा ।
हाक सुनत नर हींज ह्वै, अज हूं फुर७ वाचा ॥२॥
ज्यों दृढ़ डोरी आतमा, जीवित मृत पासा ।
गुरु गोविन्द सौं सूत्र यूं, सुन रज्जब दासा ॥३॥२॥
✦गुरु-गोविन्द से प्रीति करने की प्रेरणा कर रहे हैं - गुरु और गोविन्द से इस प्रकार प्रीति करना चाहिये कि-जीवन वा सृष्टि के आदि, मध्य और अंत तक प्रति युग में ब्रह्मानन्द ले सके ।
✦शरीर और प्राण के वियोग होने पर भी वह प्रेम नष्ट न हो । जैसे जाय वेलि की कली टूटने पर खिलती१ है वैसे शरीर नष्ट होने पर प्रेम अधिक खिले ।
✦हनुमान ब्रह्मचर्य३ के प्रेम२ में दृढ़ जटित४ हैं और सदा५ हे सच्चे रहते हैं, तब ही सिंहल द्वीप में उनकी हांक सुनकर नर नपुंसक होते हैं अभी तक भी यह वचन सत्य७ हो रहा है जैसे हनुमानजी का ब्रह्मचर्य में दृढ़ प्रेम है, वैसे गुरु गोविन्द में होना चाहिये ।
✦हे दास ! सुन, जैसे डोरी में सूत और जीवात्मा में पाप पुण्य रूप गुण रहते हैं, वैसे ही जीवित तथा मरने पर भी स्नेह सूत्र से गुरु-गोविन्द के पास रहना चाहिये ।
(क्रमशः)

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