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*केते पारिख अंत न पावैं, अगम अगोचर मांही ।*
*दादू कीमत कोई न जानै, खीर नीर की नांही ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ हैरान का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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श्रीरामकृष्ण - ज्ञानी सब कुछ स्वप्नवत् देखते हैं । भक्तगण सभी अवस्थाएँ मानते हैं । ज्ञानी दूध तो देते हैं, पर बूंद बूँद करके । (सब हँसते हैं ।) कोई कोई गौ ऐसी होती है कि घास चुन-चुनकर चरती है, इसलिए दूध भी थोड़ा थोड़ा करके देती है ।
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जो गौएँ इतना चुनती नहीं और सब कुछ, जो आगे आया खा लेती हैं, वे दूध भी खूब खर्राटे के साथ देती हैं । उत्तम भक्त नित्य और लीला दोनों ही मानता है । इसीलिए नित्य से मन के उतर आने पर भी वह उन्हें सम्भोग करने के लिए पाता है । उत्तम भक्त खर्राटे के साथ दूध देता है ! (सब हँसते हैं ।)
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महिमा - परन्तु दूध में कुछ बू आती है ! (हास्य)
श्रीरामकृष्ण – (सहास्य) - हाँ, आती है, परन्तु कुछ उबाल लेना पड़ता है । ज्ञानाग्नि पर दूध कुछ गरम कर लिया जाय तो फिर बू नहीं रह जाती । (सब हँसते हैं ।)
(महिमा से) "ओंकार की व्याख्या तुम लोग केवल यही करते हो – अकार, उकार, मकार ।"
महिमाचरण - अकार, उकार और मकार का अर्थ है सृष्टि, स्थिति और प्रलय ।
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श्रीरामकृष्ण - मैं उपमा देता हूँ घण्टे की टंकार से टू - अ – म् । लीला से नित्य में लीन होना, स्थूल, सूक्ष्म और कारण से महाकारण में लीन होना, जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से तुरीय में लीन होना । घण्टे का बजना मानो महासमुद्र में एक वजनदार चीज का गिरना है ।
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फिर तरंगों का उठना शुरू होता है; नित्य से लीला का आरम्भ होता है; महाकारण से स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीर का उद्भव होता है; तुरीय से जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति ये सब अवस्थाएँ आती हैं । फिर महासमुद्र की तरंग महासमुद्र में ही लीन हो जाती है । नित्य से लीला है और लीला से नित्य । इसीलिए मैं टंकार की उपमा दिया करता हूँ ।
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मैंने यह सब यथार्थ रूप में देखा है । मुझे उसने दिखाया है; चित्-समुद्र है, उसका ओर-छोर नहीं है । उसीसे ये सब लीलाएँ उठी है और फिर उसीमें लीन हो गयी है । चिदाकाश में करोड़ों ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति होकर वे फिर उसीमें लीन हो गये हैं । तुम्हारी पुस्तक में क्या लिखा है, यह सब मैं नहीं जानता ।
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महिमा - जिन्होंने देखा है, उन्होंने शास्त्र लिखा ही नहीं, वे तो अपने ही भाव में मस्त रहते थे, शास्त्र कब लिखते ? लिखने बैठिये तो कुछ हिसाबी बुद्धि की जरूरत होती ही है । उनसे सुनकर दूसरों ने लिखा है ।
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श्रीरामकृष्ण - संसारी पूछते हैं, कामिनी और कांचन की आसक्ति क्यों नहीं जाती ? अरे भाई, उन्हें प्राप्त करो तो आसक्ति चली जाय । अगर एक बार ब्रह्मानन्द मिल जाता है तो इन्द्रिय-सुखों या अर्थ या सम्मान आदि की ओर फिर मन नहीं जाता ।
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"कीड़ा अगर एक बार उजाला देख लेता है, तो फिर अँधेरे में नहीं जाता ।
"रावण से किसी ने कहा था, तुम सीता के लिए माया से अनेक रूप तो धरते हो, एक बार राम-रूप धारण करके सीता के पास क्यों नहीं जाते ? रावण ने कहा, 'तुच्छं ब्रह्मपदं, परवधूसंगः कुतः – जब श्रीराम की चिन्ता करता हूँ, तब ब्रह्मपद भी तुच्छ जान पड़ता है, पराई स्त्री की तो बात ही क्या है ? अतएव राम का रूप धारण करके मैं क्या करूँगा ?’
(क्रमशः)
यहाँ ब्रह्मपद का मतलब चार मुख वाले ब्रह्म देव से है, परब्रह्म परमेश्वर ब्रह्म् से नहीं। 🙏🏻
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