मंगलवार, 19 अप्रैल 2022

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १*

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*बिन ही किया होइ सब, सन्मुख सिरजनहार ।*
*दादू करि करि को मरै, शिष शाखां शिर भार ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
अथ राग राम गिरी(कली) १, गायन समय प्रातः ३ से ५
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१ - गुरु निस्पृहता । एक ताल
सद्गुरु सो जो चाह बिन, चेला बिन कीया ।
यूं परि दोष न दीजिये, मिल अमृत पीया ॥टेक॥
ज्यों शशि के श्रद्धा नहीं, कोउ कमल बिगासै१ ।
मिदित कुमोदिनी आप सौं, बाँधी उस आसै ॥१॥
ज्यों दीपक के दिल नहीं, कोउ पड़े पतंगा ।
तन मन होमे आप सौं. मोड़े नहिं अंगा ॥२॥
ज्यों कमल कोश आपै खुले, मन मधुकर नांहीं ।
भवँर भुलाना आप सौं, बींधा२ यूं मांहीं ॥३॥
ज्यों चंदन चाहे नहीं, कोउ विषधर३ आवै ।
जन रज्जब अहि आप सौं सो शोधर पावै ॥४॥१॥
गुरु इच्छा रहित हैं यह कह रहे हैं -
✦ सदगुरु वही है जिसे शिष्यादि की इच्छा नहीं होती और शिष्य वही है जो बिना शिखा छेदनादि के ही भाव से होता है । इस प्रकार के गुरु-शिष्य होने पर उन्हें शिष्य बनाने और गुरु बनाने का दोष नहीं देना चाहिए । ऐसे गुरु शिष्य तो मिल कर ज्ञानामृत का पान करते हैं ।
✦ जैसे चन्द्रमा में यह भाव होता है कि कोई कमल खिले किन्तु कुमोदिनी अपने आप ही उस चंद्रमा की आशा से बंधी हुई प्रसन्नता से खिलती१ है ।
✦ जैसे दीपक के मन में नहीं होता कि कोई पतंग आकर मेरे में पड़े किन्तु पतंग आप ही आकर अपने तन मन को दीपक में होम देता है अपने को जलाते देख कर भी शरीर को पीछे नहीं हटाता, उसी में जल मरता है ।
✦ जैसे कमल कोश अपने आप ही खिलता है, उस के मन में यह नहीं है कि - मेरे पर भ्रमर आवे किन्तु भ्रमर आप ही आकर कमल की सुगंध में ऐसे फंस२ जाता है कि अपने को भी भूल जाता है ।
✦ जैसे चंदन नहीं चाहता कि - कोई सर्प३ मेरे पर आवे किन्तु सर्प अपने आप ही उस चंदन को खोजकर४ प्राप्त करते हैं । वैसे ही गुरु नहीं चाहते कि - मेरे पास शिष्य आवें किन्तु शिष्य स्वयं ही अपने कल्याणार्थ गुरु के पास आते हैं ।
(क्रमशः)

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