मंगलवार, 19 अप्रैल 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१८४

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१८४)*
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*१८४. मन प्रति उपदेश । राज मृगांक ताल*
*मन रे, बहुरि न ऐसे होई ।*
*पीछै फिर पछतावेगा रे, नींद भरे जनि सोई ॥टेक॥*
*आगम सारे संचु करीले, तो सुख होवै तोही ।*
*प्रीति करि पीव पाइये, चरणों राखो मोही ॥१॥*
*संसार सागर विषम अति भारी, जनि राखै मन मोही ।*
*दादू रे जन राम नाम सौं, कश्मल देही धोई ॥२॥*
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भा०दी०- रे मन: ! ईदृशं मानवं जन्म दुर्लभम् । अतो मोहनिद्रां त्यज । अन्यथा चान्ते पश्चात्तापेन तपस्यति । सर्वशास्त्राणामयमेव सारो यत् परमात्मभजनमेव सर्वैः कार्यम्, तेनैव जीव: सुखमनुभवति । प्रीत्यैव प्रभुः प्राप्यते । अतो हरिं प्रति प्रीतिं विधेहि । तदैव तदीयचरणशरणागति: प्राप्यते । रे मनः ! मां महति संसारसागरे मा पातय । रामनामस्मरणेन. दुरितानि सर्वाणि ते दूरीकरु ।
रम्भां प्रति शुकोपदेश -
अचिन्त्यरूपो भगवान्निरंजनो विश्वम्भरोन ज्योतिर्मयश्चिदात्मा ।
न भावितो येन हृदि क्षणं वा वृथागतं तस्य नरस्य जन्म ॥
यन्मुहूर्त क्षणं वाऽपि वासुदेवं न चिन्त्यते ।
सा हानिस्तन्महच्छिद्रं सा भ्रान्ति: सैव विक्रिया ॥
श्रीगोस्वामिकृत श्रीभगवन्नामाष्टके-
नामधेय मुनिवृन्दगेय जनरंजनाय परमक्षराकृते ।
त्वमनादरादपि मनागुदीरितं निखिलोग्रतापपटली विलुप्यसि ।
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ऐसा मनुष्य शरीर मिलना बहुत दुर्लभ है । अतः मोह निद्रा को त्याग दे अन्यथा फिर तूझे पश्चाताप करना पड़ेगा । सब शास्त्रों का यही सार है कि परमात्मा को भजना चाहिये । इसी से जीव सुखी हो सकता है । प्रेम से ही प्रभु प्राप्त होते हैं । अतः हरि से प्रेम करो । प्रेम से ही हरि के चरण-कमलों की शरणागति प्राप्त होती है । रे मन ! तू मेरे को इस महान् संसार-सागर में मत डाल ।
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रम्भा को शुकदेव जी उपदेश दे रहे हैं कि –
निरंजन भगवान् का स्वरूप अचिन्त्य है । वह भगवान् ज्योतिर्मय सच्चित्स्वरूप है । विश्व का पालन करने वाला है । जो मानव ऐसे भगवान् की क्षण भर भी हृदय में भावना नहीं करता, उसका जन्म व्यर्थ ही है ।
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गरुडपुराण में कहा है कि –
जो मानव एक मुहूर्त अथवा आधे क्षण भी भगवान् का ध्यान नहीं करता तो यह उसके जीवन में सबसे बड़ी हानि मानी गई है और यह ही सबसे बड़ा छिद्र है । यही भ्रान्ति और विक्रिया है, जो भगवान् को नहीं भजते ।
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मुनिजनों के द्वारा गायन करने योग्य तथा भक्तों के अनुरंजन के लिये आकृति धारण करने वाले हे हरिनाम ! तेरी जय हो । आपका उत्कर्ष सदैव विराजमान रहे अथवा आप अपने उत्कर्ष को प्रकट करें । यह उत्कर्ष आप का यही है कि चाहे अनादर से, संकेत वृत्ति से, परिहास के रूप में भी यदि कोई किन्चित्मात्र भी आपको उच्चारण कर देता है तो उसके समस्त पापों को नष्ट कर देना । अतः मुझे भी अपनी शरणागति प्रदान करें ।
(क्रमशः)

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