बुधवार, 27 अप्रैल 2022

*उद्दीपन किसे होता है ?*

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*दादू गगन गिरै तब को धरै, धरती-धर छंडै ।*
*जे तुम छाड़हु राम रथ, कंधा को मंडै ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विनती का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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"कुछ भक्त मन में सोचते हैं कि तब तो हम लोग भी यदि चेष्टा न करें, तो चल सकता है ।
"जिसके मन में यह है कि चेष्टा करनी चाहिए, उसे चेष्टा करनी होगी ।”
विजय - भक्तमाल में एक बड़ी अच्छी कहानी है ।
श्रीरामकृष्ण - कहो, जरा सुनें तो ।"
विजय - आप कहिये ।
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श्रीरामकृष्ण - नहीं, तुम्हीं कहो, मुझे पूरी याद नहीं है । पहले पहल सुनना चाहिए, इसीलिए मैं सुना करता था ।
"मेरी अब वह अवस्था नहीं है । हनुमान ने कहा था, वार, तिथि, नक्षत्र, इतना सब मैं नहीं जानता, मैं तो बस श्रीरामचन्द्रजी की चिन्ता किया करता हूँ ।
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"चातक को बस स्वाति के जल की चाह रहती है । मारे प्यास के जी निकल रहा है, परन्तु गला उठाये वह आकाश की बूँदों की ही प्रतिक्षा करता है । गंगा-यमुना और सातों समुद्र इधर भरे हुए हैं, परन्तु वह पृथ्वी का पानी नहीं पीता ।
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"राम और लक्ष्मण जब पम्पा सरोवर पर गये तब लक्ष्मण ने देखा, एक कौआ व्याकुल होकर बार बार पानी पीने के लिए जा रहा था, परन्तु पीता न था । राम से पूछने पर उन्होंने कहा 'भाई, यह कौआ परम भक्त है । दिनरात यह रामनाम जप रहा है । इधर मारे प्यास के छाती फटी जा रही है, परन्तु पानी पी नहीं सकता । सोचता है, पानी पीने लगूँगा तो जप छूट जायेगा ।' मैंने पूर्णिमा के दिन हलधर से पूछा, दादा, आज क्या अमावस है ? (सब हँसते हैं ।)
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(सहास्य) “हाँ यह सत्य है । ज्ञानी पुरुष की पहचान यह है कि पूर्णिमा और अमावस में भेद नहीं पाता । परन्तु हलधारी को इस विषय में कौन विश्वास दिला सकता है ? उसने कहा 'यह निश्चय ही कलिकाल है । वे (श्रीरामकृष्ण) पूर्णिमा और अमावस में भेद नहीं जानते और फिर भी लोग उनका आदर करते हैं ।" (इसी समय महिमाचरण आ गये ।)
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श्रीरामकृष्ण - (सम्भ्रमपूर्वक) - आइये, आइये, बैठिये । (विजय आदि से) इस अवस्था में दिन और तिथि का ख्याल नहीं रहता । उस दिन वेणीपाल के बगीचे में उत्सव था - मैं दिन भूल गया । ‘अमुक दिन संक्रान्ति है, अच्छी तरह ईश्वर का नाम लूँगा’, यह अब याद नहीं रहता । (कुछ देर विचार करने के बाद) परन्तु अगर कोई आने को होता है तो उसकी याद रहती है ।
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"ईश्वर पर सोलहों आने मन जाने पर यह अवस्था होती है । राम ने पूछा, 'हनुमान, तुम सीता की खबर तो ले आये, अच्छा, तो उन्हें कैसा देखा ? कहो, मेरी सुनने की इच्छा है ।' हनुमान ने कहा, 'राम, मैंने देखा, सीता का शरीर मात्र पड़ा हुआ है । उसमें मन, प्राण नहीं है । आप के ही पादपद्मों में उन्होंने वे समर्पण कर दिये हैं । इसलिए केवल शरीर ही पड़ा हुआ है । और मैंने देखा काल(यमराज) पास ही था, परन्तु वह करे क्या ? वहाँ तो शरीर ही है, मन और प्राण तो हैं ही नहीं ।'
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"जिसकी चिन्ता की जाती है, उसकी सत्ता आ जाती है । दिनरात ईश्वर की चिन्ता करते रहने पर ईश्वर की सत्ता आ जाती है । नमक का पुतला समुद्र की थाह लेने गया तो गलकर खुद वही हो गया । पुस्तकों या शास्त्रों का उद्देश्य क्या है ? – ईश्वरलाभ । साधु की पौथी को एक ने खोलकर देखा, उसमें सिर्फ रामनाम लिखा हुआ था, और कुछ भी नहीं ।
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"ईश्वर पर प्रोति होने पर थोड़े ही में उद्दीपन हुआ करता है । तब एक बार रामनाम करने पर कोटि सन्ध्योपासन का फल होता है ।
"मेघ देखकर मयूर को उद्दीपन होता है । आनन्द से पंख फैलाकर नृत्य करता है । श्रीमती राधा को भी ऐसा ही हुआ करता था । मेघ देखकर उन्हें कृष्ण की याद आती थी ।
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"चैतन्यदेव मेड़गाँव के पास ही से जा रहे थे । उन्होंने सुना इस गाँव की मिट्टी से ढोल बनता है । बस भावावेश में विह्वल हो गये - क्योंकि संकीर्तन के समय ढोल का ही वाद्य होता है ।
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"उद्दीपन किसे होता है ? जिसकी विषयबुद्धि दूर हो गयी है, जिसका विषयरस सूख जाता है, उसे ही थोड़े में उद्दीपन होता है । दियासलाई भीगी हुई हो तो चाहे कितना ही क्यों न घिसो, वह जल नहीं सकती, पानी अगर सूख जाय तो जरा सा घिसने से ही वह जल जाती है ।
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"देह में सुख और दुःख लगे ही हैं । जिसे इश्वरलाभ हो चुका है, वह मन, प्राण, आत्मा, सब उन्हें दे देता है । पम्पा सरोवर में नहाते समय राम और लक्ष्मण ने सरोवर के तट की मिट्टी में धनुष गाड़ दिये । स्नान करके लक्ष्मण ने धनुष निकालते हुए देखा, धनुष में खून लगा हुआ था ।
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राम ने देखकर कहा, भाई, जान पड़ता है, कोई जीव-हिंसा हो गयी । लक्ष्मण ने मिट्टी खोदकर देखा तो एक बड़ा मेंढ़क था, वह मरणासन्न हो गया था । राम ने करुणापूर्ण स्वर में कहा, 'तुमने आवाज क्यों नहीं दी ? हम लोग तुम्हें बचा लेते । जब साँप पकड़ता है, तब तो खूब चिल्लाते हो ।'
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मेंढ़क ने कहा, 'राम, जब साँप पकड़ता है, तब मैं चिल्लाता हूँ, राम, रक्षा करो - राम, रक्षा करो । पर अब देखता हूँ, राम स्वयं मुझे मार रहे हैं, इसीलिए मुझे चुपचाप रह जाना पड़ा ।'”
(क्रमशः)

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