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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ६५/६८*
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कहि जगजीवन रांमजी, जल का पात्र सरीर ।
सकल साध सनान करि, पीवैं अम्रित नीर ॥६५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यह शरीर जल संग्रहण पात्र के समान है । इसके स्मरण रुपी जल से स्नान कर सभी साधुजन अमृत नीर पीते हैं । स्मरण कर मोक्ष को प्राप्त होते हैं ।
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करी सकति वो अकर हरि, कोइ जन जांणै जागि ।
कहि जगजीवन रांम रटि, प्रक्रिति८ त्रिय छंद त्यागि८ ॥६६॥
{८=८. प्रक्रिति त्रिय छंद त्यागि= प्रकृति(माया) के सत्त्व, रज, तम=इन तीनों गुणों में अपनी स्वच्छन्द प्रवृत्ति का त्याग कर भगवान् का भजन करे}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वो प्रभु जी न करते हुये भी सब कर देते हैं । अतः हे जीव उनका स्मरण करो राजस तामस व सात्विक गुणों से परे निस्वार्थ भाव से स्मरण करें ।
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कहि जगजीवन वरण१ ये, तिन मंहि कोटि विचार ।
नांम परस निरमल सकल, मूल रकार मकार ॥६७॥
{१. वरण=वर्ण(अ, आ आदि अक्षर)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि तीन अक्षर र, उ, म, जिनसे युक्त राम शब्द है, में ही करोड़ों विचार हैं सभी ग्रंथों का सार है । इस नाम के स्पर्श जिसमे रं रंकार व मं मंकार की मुख्य ध्वनि है से ही जीव शुद्ध होता है ।
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पंच संधि२ पूरण भई, भगति भाव जहां नांम ।
कहि जगजीवन वोइ३ घरि, अकल निरंजन रांम ॥६८॥
(२. पंच सन्धि=व्याकरण आदि शास्त्र की) (३. वोइ=वही)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि व्याकरण की दीर्घ ह्रस्व पांच संधियों व पंचं इन्द्रियों की पांच संधियों से युक्त इस देह में जहाँ भक्ति पूर्वक प्रभु का नाम हो वहां ही वे परमात्मा स्वयं हैं ।
(क्रमशः)

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