मंगलवार, 31 मई 2022

*गुरुवाक्य में विश्वास करना चाहिए*

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*दादू कहै, जे कुछ दिया हमको, सो सब तुम ही लेहु ।*
*तुम बिन मन मानै नहीं, दरस आपणां देहु ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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"तुम्हारी आवश्यकता है ईश्वर को प्राप्त करने की । तुम इतना जगत्, सृष्टि, साइन्स-फाइन्स यह सब क्या कर रहे हो ? तुम्हें आम खाने से मतलब । बगीचे में कितने सौ पेड़ हैं, कितने हजार टहनियाँ, कितने लाख करोड़ पत्ते हैं - इन सब हिसाबों से तुम्हारा क्या काम ?
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तुम आम खाने आये हो, आम खाकर चले आओ । इस संसार में मनुष्य आया है भगवान को प्राप्त करने के लिए । उसे भूलकर अन्य विषयों में मन लगाना ठीक नहीं । आम खाने के लिए आये हो, आम खाकर ही चले जाओ ।"
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बंकिम - आम पाता हूँ कहाँ ?
श्रीरामकृष्ण - उनसे व्याकुल होकर प्रार्थना करो, आन्तरिक प्रार्थना होने पर वे अवश्य सुनेंगे । सम्भव है कि ऐसा कोई सत्संग जुटा दें, जिससे सुभीता हो जाय । सम्भव है कोई कह दें, ऐसा-ऐसा करो, तो ईश्वर को पाओगे ।
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बंकिम – कौन ? गुरु ? वे अच्छे आम स्वयं खाकर मुझे खराब आम देते हैं ! (हंसी ।)
श्रीरामकृष्ण - क्यों जी ! जिसके पेट में जो सहन होता है । सभी लोग कलिया खाकर पचा सकते हैं ? घर में अच्छी चीज बनने पर माँ सभी बच्चों को पुलाव-कलिया नहीं देती । जो कमजोर है, जिसे पेट की बीमारी है, उसे सादी तरकारी देती है; तो क्या माँ उस बच्चे से कम स्नेह करती है ?
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"गुरुवाक्य में विश्वास करना चाहिए । गुरु ही सच्चिदानन्द, सच्चिदानन्द ही गुरु हैं; उनकी बात पर विश्वास करने से, बालक की तरह विश्वास करने से, ईश्वरप्राप्ति होती है । बालक का क्या हो विश्वास है ! माँ ने कहा, 'वह तेरा भाई लगता है,’ उसी समय जान लिया, 'वह मेरा भाई है ।' एकदम पूरा पक्का विश्वास ।
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ऐसा भी हो सकता है कि वह लड़का ब्राह्मण के घर का है, और वह 'भाई' सम्भव है कि किसी दूसरी जाति का हो । माँ ने कहा, उस कमरे में 'जूजू' है । बस, पक्का जान लिया, उस कमरे में 'जूजू' है । यही बालक का विश्वास है; गुरुवाक्य में इसी प्रकार विश्वास चाहिए । सयानी बुद्धि, हिसाबी बुद्धि, विचार बुद्धि करने से ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता । विश्वास और सरलता होनी चाहिए, कपटी होने से न होगा । सरल के लिए वे बहुत सहज हैं । कपटी से वे बहुत दूर हैं ।
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"परन्तु बालक जिस प्रकार माँ को न देखने से बेचैन हो जाता है, लड्डू मिठाई हाथ पर लेकर चाहे भुलाने की चेष्टा करो परन्तु वह कुछ भी नहीं चाहता, किसी से नहीं भूलता और कहता है, 'नहीं, मैं माँ के ही पास जाऊँगा,' इसी प्रकार ईश्वर के लिए व्याकुलता चाहिए ।
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अहा ! कैसी स्थिति ! - बालक जिस प्रकार 'माँ माँ' कहकर पागल हो जाता है, किसी भी तरह नहीं भूलता ! जिसे संसार के ये सब सुखभोग फीके लगते हैं, जिसे अन्य कुछ भी अच्छा नहीं लगता, वही हृदय से 'माँ माँ' कहकर कातर होता है । उसी के लिए माँ को फिर सभी कामकाज छोड़कर दौड़ आना पड़ता है ।
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"यही व्याकुलता है । किसी भी पथ से क्यों न जाओ, हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, शाक्त, ब्राह्म - किसी पथ से जाओ, यह व्याकुलता ही असली बात है । वे तो अन्तर्यामी हैं, यदि भूल पथ में भी चले गये हो तो भी दोष नहीं है - पर व्याकुलता रहे । वे ही फिर ठीक पथ में उठा लेते हैं ।
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"फिर सभी पथों में भूल है - सभी समझते हैं, मेरी घड़ी ठीक जा रही है, पर किसी की घड़ी ठीक नहीं चलती । तिस पर भी किसी का काम बन्द नहीं रहता । व्याकुलता हो तो साधु-संग मिल जाता है, साधु-संग से अपनी घड़ी बहुत कुछ मिला ली जा सकती है ।”
(क्रमशः)

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