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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१९३)*
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*१९३. उपदेश । पंजाबी-त्रिताल*
*पंडित, राम मिलै सो कीजे ।*
*पढ़ पढ़ वेद पुराण बखानैं, सोई तत्त्व कह दीजे ॥टेक॥*
*आतम रोगी विषम बियाधी, सोई कर औषधि सारा ।*
*परसत प्राणी होइ परम सुख, छूटै सब संसारा ॥१॥*
*ए गुण इन्द्री अग्नि अपारा, ता सन जलै शरीरा ।*
*तन मन शीतल होइ सदा सुख, सो जल नहाओ नीरा ॥२॥*
*सोई मार्ग हमहिं बताओ, जेहि पंथ पहुँचे पारा ।*
*भूलि न परै उलट नहीं आवै, सो कुछ करहु विचारा ॥३॥*
*गुरु उपदेश देहु कर दीपक, तिमिर मिटे सब सूझे ।*
*दादू सोई पंडित ज्ञाता, राम मिलन की बूझे ॥४॥*
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भा०दी० - जगजीवनरामनामानं शिष्यमुपदिशति दादूदेवः । हे पण्डितंमन्य जगजीवनराम ! येन. मार्गेण भगवद्प्राप्तिर्भवेत्तमेवलम्ब्य तत्साधनं कुरु । विद्वांसः श्रुतिस्मृतिवचनैर्यद् ब्रह्मतत्त्वं निर्दिशन्ति तस्यैव तत्त्वस्य वार्ता (ज्ञान) कथय । जीवोऽयं जन्मजरामृत्युरूपमहाव्याधिग्रस्तोऽस्ति । अतस्तस्यैव मुख्यौषधं कुरु येन रोगनिवृत्तिर्भवेत् । किञ्च प्रभुणा सह संगत्य परमसुखी भवेत् । ये ये विषया इन्द्रियादयश्चाग्निकल्पास्तेषु प्राणिनः सततं ज्वलन्ति, यस्मिञ्जले स्नानेन शरीरं मनो वाक् च शाम्यति तादृशे ज्ञाने स्नानं विधेहि । मामपि तन्मार्गमुपदिश, येन तत्र गत्वा जीव: पुनर्न निवर्तते स एव मार्ग: पुन: पुनर्विचारणीयः । त्वं सद्गुरूपदिष्ट यो हि ज्ञानदीपं स्वान्त:करणे निधहि येनाज्ञाननाशात्परब्रह्मपरमात्मा प्रकाशेत । ब्रह्मज्ञानानुकूलसाधनसंपन्न: स एव ज्ञानी पण्डित इत्युच्यते । त्वन्तु विवादं विदधासि । अत: पण्डितं-मन्य! नास्त्यभिमानेन कस्यापि सद्गतिरिति भावः ।
उक्तं हि वासिष्ठे
ब्रह्मन् ! यावदह कारवारिदः परिज़म्भते ।
तावद् विकासमायाति तृष्णा कुटजमंजरी ॥
अहंकारघने शान्ते तृष्णा नवतडिल्लता ।
शान्तदीपशिखावृत्या क्वाऽपि यात्वतिसत्वरम् ॥
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अपने पण्डित शिष्य जगजीवनराम शिष्य को उपदेश दे रहे हैं, जो शास्त्रार्थ करने की भावना से आया था । हे पण्डिताभिमानी जगजीवनराम ! तुम को जिससे भगवत्प्राप्ति हो जाय उसी उत्तम साधन को करना चाहिये । विद्वान पुरुष श्रुतिस्मृति द्वारा जिस ब्रह्मतत्त्व का विचार करते हैं, तुम उस तत्त्व की चर्चा हमें भी बताओ ।
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यह जीव जन्ममरण रूपी रोग से पीड़ित है, अतः इस रोग की जो मुख्य औषधि(ज्ञान) है उसी का सेवन करो, जिससे रोग की निवृत्ति हो जाय और प्रभु के साथ मिलकर परम सुखी हो जाय । ये इन्द्रियाँ और इन इन्द्रियों के जो-जो शब्दस्पर्शादि विषय हैं ये सब प्रचंड जलती हुई अग्नि ज्वालायें हैं जिनमें प्राणी जल रहे हैं । सो तुम ऐसे जल में स्नान करो जिससे शरीर मन वाणी ये सब शान्त हो जायँ ।
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आप मेरे को उस मार्ग का उपदेश करों जिस मार्ग से फिर वापस लौटना नहीं पड़ता । मेरे का उस मार्ग का उपदेश करो जिस मार्ग से फिर वापस नहीं लौटना नहीं पड़ता । उसी मार्ग का बार-बार में विचार करो । सतगुरु द्वारा उपदिष्ट ज्ञान को अपने हृदय में धारण करो जिस से अज्ञान का नाश होने से परमात्मा का प्रकाश फैले । जो श्मदमादिज्ञान के साधन हैं उनसे युक्त ही ज्ञानी पण्डित होता है । आप तो वाद-विवाद कर रहे हैं, अतः आप विद्याभिमानी हैं । अभिमान से किसी की भी सद्गति नहीं होती ।
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वासिष्ठ में लिखा है कि –
जब तक यह अहंकार रूपी बादल(जैसे आकाश में बादल नक्षत्रगणों की ज्योति को आच्छादित कर देता है वैसे ही अहंकार भी ज्ञानज्योति को आच्छादित करने के कारण बादल के समान है), फैल रहा है तब तक तृष्णारूपी मंजरी भी बढ़ती ही जायेगी । अहंकार रूपी बादल के शान्त हो जाने पर नूतन बिजली का चमकना भी शान्त हो जाता है । उसी प्रकार शान्त दीपशिखा की तरह वृत्ति के शान्त होने से तृष्णा भी बहुत जल्दी नष्ट हो जाती है ।
(क्रमशः)

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