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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ९३/९६*
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तीरथ संगति साध की, तीरथ भगति निवास ।
तीरथ रांम सुमिरण हरि, सु कहि जगजीवनदास ॥९३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि साधुजन की संगति तीर्थ सम है । भक्ति में तीर्थ है । संत कहते हैं कि हरि स्मरण ही तीर्थ है ।
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तीरथ कथा कीरतन हरि गुण, तीरथ बैंन३ बिलास ।
तीरथ सतगुर सबद हरि, सु कहि जगजीवनदास ॥९४॥
(३. बैंन-वचन)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु कथा भी तीर्थ है । कीर्तन भी जिसमें हरिगुण हो वह भी तीर्थ है । गुरु वचनों का वैभव भी तीर्थ ही है । ऐसा संत कहते हैं ।
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तीरथ देह विदेह हरि, तीरथ वपु मंहि बास ।
तीरथ तिरवेणी गगन, सु कहि जगजीवनदास ॥९५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि देह तीर्थ है विदेह रुपी परमात्मा भी तीर्थ है । देह में भी परमात्मा का वास है । संत कहते हैं इंगला पिंगला सुषुम्ना भी ह्रदय गगन के संगम है ।
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तीरथ सरवर सुन्नि हरि, तीरथ सहज निवास ।
तीरथ झिलमिल जोति हरि, सु कहि जगजीवनदास ॥९६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि तीर्थ से सरोवर पर शून्य रुप में प्रभु विराजते हैं । ऐसे मन रुपी तीर्थ की झिलमिल ज्योति स्वयं प्रभु हैं ।
(क्रमशः)

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