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*जब मन मृतक ह्वै रहे, इंद्री बल भागा ।*
*काया के सब गुण तजे, निरंजन लागा ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग राम गिरी(कली) १, गायन समय प्रातः ३ से ५
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१० मृतक मन दुखद नहीं । त्रिताल
यूं मन मृतक ह्वै रहै, तो मारे१ नांहीं ।
माया में न्यारा रहै, जिव जग पति मांहीं ॥टेक॥
ज्यों मुरदा आरथी पड्या, बरतणि२ बहु बानी ।
औरों की भाँवरी३ भई, उन कछु न जानी ॥१॥
निष्कामी न्यारा रहै, प्रतिमा परि खेलै४ ।
बरतणि५ बरतै विगत६ सौं, उर आप न मेलै७ ॥२॥
बाजीगर की पूतली, बाजीगर हाथै ।
रज्जब राखै त्यों रहै, नहिं अवगुण साथै ॥३॥१०॥
मन मर जाने पर पूर्ववत दु:ख नहीं देता यह कह रहे हैं -
✦ उक्त ९ के पद के समान मन मर जाता है तब फिर साधक को दु:ख१ नहीं देता । मृतक मन जीव माया में रह कर भी उससे जगत् पति प्रभु में ही रहता है ।
✦ जैसे अरथी पर मुर्दा पड़ा रहता है । तब लोग बहुत प्रकार की वाणी बोलते हुये व्यवहार२ करते हैं कुछ लोगों की परिक्रमा३ भी होती है, किंतु वह कुछ नहीं जानता वैसे ही
✦ निष्कामी जित मन संत मूर्ति पूजा सेवा शरीर से परे का आनन्द४ लेता है । सब व्यवहार५ ज्ञान६ करता है । अपने हृदय में ब्रह्म चिंतन के बिना अन्य कुछ भी नहीं रखता७ ।
✦ जैसे बाजीगर की पुतली बाजीगर के हाथ में रहती है, वह जैसे रखता है वैसे ही रहती है इससे उसके साथ अवगुण नहीं रहते । वैसे ही जित मन निष्कामी की जीवन डोरी प्रभु के हाथ में रहती है । प्रभु रखते हैं वैसे ही रहता है इस कारण उसके हृदय में अवगुण नहीं रहते ।
(क्रमशः)

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