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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१९४)*
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*१९४. उपदेश । प्रतिताल*
*हरि राम बिना सब भर्मि गये, कोई जन तेरा साच गहै ॥टेक॥*
*पीवै नीर तृषा तन भाजै, ज्ञान गुरु बिन कोइ न लहै ।*
*प्रकट पूरा समझ न आवै, तातैं सो जन दूर रहै ॥१॥*
*हर्ष शोक दोउ सम कर राखै, एक एक के संग न बहै ।*
*अनतहि जाइ तहाँ दुख पावै, आपहि आपा आप दहै ॥२॥*
*आपा पर भरम सब छाड़ै, तोनि लोक पर ताहि धरै ।*
*सो जन सही साच कौं परसे, अमर मिले नहिं कबहुँ मरै ॥३॥*
*पारब्रह्म सूं प्रीति निरन्तर, राम रसायन भर पीवै ।*
*सदा आनन्द सुखी साचे सौं, कहै दादू सो जन जीवै ॥४॥*
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भा०दी० - हरि नामचिन्तनं बिना सर्वेऽपि प्राणिनो भ्राम्यन्ति । कश्चिदेवासंख्येषु जनेषु तव सत्यं स्वरूपं सर्वव्यापकं परिचीय नामचिन्तने प्रवर्तते । यथा जलं बिना न पिपासा शाम्यति, तथैव गुरुं बिनाऽपि ज्ञानं न लभ्यते । न च ज्ञानं बिना प्रत्यक्षेण पूर्णब्रह्मस्वरूपं परिज्ञायते । अतस्तृष्णापिपासां शमयितुं ब्रह्मज्ञानमावश्यकम् । तच्च ज्ञानं हर्षशोकादिनिरोधकं कामक्रोधादिवेगान् हृदयस्थानवरुणद्धि । समुत्पन्नेऽपि ज्ञाने कदाचित्तेषां तद्वेगे वृद्धि गते तद्विरोधनिभिर्वृत्तिभि-विवेकवैराग्यादिरूपाभिस्तत्कालमेव प्रशयेत् । यदि च जीवात्माऽयं कामक्रोधादिवृत्तिभि: सहानात्म-पदार्थेषु परिभ्रमति तदैव स दुखेन युनक्ति । अत: साधकेन स्वकीयेनात्म ज्ञानाग्निनाऽनात्मनोऽहंकारं निर्दा तव मम भावं च परित्यज्याज्ञानजन्यभेदात्प्रतीयमानं भ्रममपि दूरीकृत्य निर्गुणरहितं लोकातीतं शुद्धं ब्रह्मोपासनीयम् । एतादृश: साधक एव निश्चयेन सत्यस्वरूपं ब्रह्म ज्ञात्वाऽमरत्वं गच्छति । न च कदापि मृत्युग्रासो भवतीति सत्यं वेद्यः । स च सत्यं ब्रह्म विज्ञाय आनन्देति मग्न: सुखी भवति ।
उक्तं वासिष्ठे उपशमे ::
अथापदं प्राप्य सुसंपदं वा महामतिः स्वप्रकृतं स्वभावम् ।
जहातिनो मन्दरवेल्लितोऽपिशोक्ल्यं यथा क्षीरमपाम्बुराशिः ॥
संप्राप्तसाम्राज्यमथापदं वा सरीसृपत्वं सुरनाथतां वा ।
तिष्ठत्यखेदोदयेमस्तहर्ष क्षपोदपेष्विन्दुरिवैकरूपः ॥
हर्षामर्ष विषादाभ्यां यदि गच्छति नान्यताम् ।
वीतरागभयक्रोधस्तदसङ्गोऽसि राघव! ।
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हरि के नाम चिन्तन बिना सभी प्राणी भ्रान्त हो रहे हैं । हजारों में कोई ही सत्यस्वरूप सर्वव्यापक परमात्मा को पहचान कर नामचिन्तन में लगता होगा । जैसे जल के बिना प्यास नहीं जाती है वैसे ही गुरु के बिना ज्ञान नहीं मिलता और ज्ञान के बिना प्रत्यक्षरूपेण ब्रह्म का स्वरूप नहीं जाना जाता । ऐसे प्राणियों के लिये तृष्णा पिपासा को शान्त करने के लिये ब्रह्मज्ञान आवश्यक है, जो ज्ञान हर्ष शोक को मिटाने वाला और हृदयस्थ काम-क्रोधादिवेगों का अवरोध करता है ।
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यदि कभी ज्ञान होने पर भी कामादिकों का वेग उत्पन्न हो जाय तो उस को विरोधि विवेकवैराग्यादिवृत्तियों द्वारा उस को तत्काल ही ज्ञान नष्ट कर देता है । यदि यह जीवात्मा काम-क्रोधादिवृत्तियों अनात्म पदार्थों में भ्रमण करता है तो उसी क्षण दुःखी हो जायेगा ।
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अतः साधक अपने ज्ञानरुपी अग्नि के द्वारा अनात्म अहंकार को जलाकर तथा ‘तव मम’ भाव को त्यागकर अज्ञानजन्य भेद-भ्रम को भी छोड़ दे और गुणातीत, लोकातीत ब्रह्म की उपासना करे । ऐसा साधक निश्चय ही सत्य-स्वरूप ब्रह्म को जीतकर अमर हो जाता है अर्थात् फिर कभी भी मृत्यु का ग्रास नहीं बनता । यह मैं सत्य ही कह रहा हूँ किन्तु उस सत्य ब्रह्म को जानकर उसके आनन्द से सदा सुखी रहता है ।
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योगवासिष्ठ में उपशम प्रकरण में लिखा है कि –
जिस प्रकार मन्दराचल पर्वत से मथे जाने पर भी क्षीरसमुद्र अपना स्वाभाविक शुक्लपना नहीं छोड़ता उसी प्रकार आपत्ति अथवा उत्तम सम्पत्तियों के प्राप्त होने पर भी वह महामति तत्वज्ञ अपना सहज स्वभाव नहीं छोड़ता ।
साम्राज्य की प्राप्ति में अथवा आपत्ति आने पर, सांप योनि में तथा स्वर्ग प्राप्त होने में, खेदरहित हर्ष विषाद से रहित रहता है जैसे चन्द्रमा कलाओं के क्षीण तथा उदय होने पर भी एक रस रहता है ।
यदि ज्ञानी के हर्ष विषाद आदिकों के प्राप्त होने पर अन्तःकरण में कोई विषय का भाव पैदा नहीं होता तो वह रागद्वेषभयक्रोध आदि से असंग ही रहता है, ऐसा समझो ।
(क्रमशः)

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