बुधवार, 11 मई 2022

*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ९७/१००*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ९७/१००*
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सबद धणी४ का धणी कहै, धणी कहावै आप ।
जगजीवन बोलै धणी, पूत पिछांणै बाप ॥९७॥
{४. धणी-स्वामी(मालिक)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु का कथन भी प्रभु है । और फिर स्वयं मालिक परमात्मा भजन भाव से ही अपने आत्मीय जन को ऐसे पहचान लेते हैं जैसे पुत्र को पिता स्वर मात्र से ही जान ले ।
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रसना रांम, रांम मन मांही, चित मंहि रांम निवास ।
उर मंहि रांम अलेख हरि, सु कहि जगजीवनदास ॥९८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिह्वा पर राम नाम, मन में राम नाम, चित में राम जी का निवास हो सो कहते हैं मन में सदा हरि ही रहें ।
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कहि जगजीवन बिरह के, गुन थैं रीझै रांम ।
संधि जुड़ै सतगुरु मिलै, नांम भजै निहकाम ॥९९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि विरहजन्य पीड़ा से राम पसीज जाते हैं और जब हम निष्काम भाव से भजन करते हैं तो हमारा संबध प्रभु से जुड़ जाता है ।
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कहि जगजीवन बिरह नहिं, भेष लहै तिहिं नाउं ।
इहाँ न आतम वो लखै, आगै नांउ न ठांउं ॥१००॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि विरही नहीं भेष धारी भी भगवान का नाम लेते हैं यहां जो उस आत्म स्वरूप को नहीं देख पाते उनके नाम व ठिकाने भी नहीं मिलते हैं ।
(क्रमशः)

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