शनिवार, 14 मई 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१९५

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१९५)*
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*१९५. भ्रम विध्वंसण । प्रतिताल*
*जग अंधा नैन न सूझै, जिन सिरजे, ताहि न बूझै ॥टेक॥*
*पाहण की पूजा करै, करै आतम घाता ।*
*निर्मल नैन न आवई, दोजख दिशि जाता ॥१॥*
*पूजै देव दिहाड़ियां, महा-माई मानैं ।*
*प्रकट देव निरंजना, ताकी सेव न जानैं ॥२॥*
*भैरुं भूत सब भ्रम के, पशु प्राणी ध्यावैं ।*
*सिरजनहारा सबन का, ताको नहिं पावैं ॥३॥*
*आप स्वारथ मेदनी, का का नहिं करही ।*
*दादू सांचे राम बिन, मर मर दुख भरही ॥४॥*
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भा०दी० - अज्ञाननिविडान्धोऽयं संसारः । न हि हितमहितञ्च पश्यति । जना जन्मदातारं प्रभुं विस्मृत्य प्रस्तरनिर्मितां प्रतिमां पूजयन्ति । तदर्थं पशून निघ्नन्ति । न हि निर्मलं हिंसारहित- मीश्वरजनं कुर्वन्ति । एतादृशाः पुरुषास्तामसेऽशुचे नरके निपतन्ति । केचित् प्रेतान् भूतगणाश्च सप्तमातृकादीन् भैरवादीन् देवानर्चन्ति । न च स्वकीयमधःपतनं पश्यन्ति । तस्मान्न ते कदाऽपि प्रभु प्राप्नुवन्ति । किन्तु नाना जन्ममरणप्रवाहे पतिताः पशुप्राया: पुरुषा: कदाप्यात्मसुखं न लभन्ते । अहो तादृशा: पाशविका: पुरुषा: स्वार्थसिद्धये किं किं नाचरन्ति । निन्द्यामपि प्राणिहिंसां श्रेष्ठां मन्यन्ते अतो नानाविधक्लेशान् भुञ्जते न तु सावधाना: भवन्ति ।
उक्तं हि गीतायाम् -
यजन्ते सात्विका देवान् यक्षरक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान् भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥
अशास्त्र विहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः ।
दम्भाहंकार संयुक्ता: कामरागबलान्विताः ॥
कर्शयन्त शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः ।
मां चैवान्त: शरीरस्थं तान् विद्धयासुरनिश्चयान् ॥
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यह संसार अज्ञान से अन्धा होने के कारण अपना हित भी नहीं सोचता । जन्म देने वाले प्रभु को छोड़कर पत्थर से निर्मित पत्थर की मूर्ति को ही पूजते हैं और उसके लिये पशुओं की हत्या भी करते हैं । किन्तु निर्मल, हिंसा आदि सब दोषों से रहित, ईश्वर को नहीं भजते । ऐसे तामसवृत्ति वाले पुरुष होते हैं और अपवित्र नरकों में जाते हैं । कितने ही प्रेतों को, भूतगणों को, सप्तमातृकादि देवों को, भ्रमकल्पित भैरावादि अनन्त देवों को पूजते हुए अपने पतन को नहीं देखते ।
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ऐसे पशु बुद्धि वाले मानव जन्म-मरण के चक्कर में पड़े हुए कभी भी सुखी नहीं होते । अहो ! ये पाशविक लोग अपने स्वार्थ के लिये निन्दनीय पशु हिंसा को भी श्रेष्ठ मानते हैं । क्योंकि मानव अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये क्या-क्या नहीं करता? अतः ऐसे पुरुष नाना क्लेशों को भोगते रहते हैं । फिर भी सावधान नहीं होते ।
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गीता में लिखा है कि –
सात्विक पुरुष देवों को पूजते हैं । राजस पुरुष यक्ष राक्षसों को तथा जो तामस पुरुष हैं वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं । जो पुरुष शास्त्रविधि से रहित केवल मन की कल्पना से घोर तप करते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं । जो शरीररूप से स्थित भूतसमुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी क्लेश देते हैं, ऐसे अज्ञानियों को आसुर स्वभाव वाले जानो ।
(क्रमशः)

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