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*काया कबज कमान कर, सार शब्द कर तीर ।*
*दादू यहु सर सांध कर, मारै मोटे मीर ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग राम गिरी(कली) १, गायन समय प्रातः ३ से ५
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१२. करने योग्य शिकार । कहरवा
रे प्राणी यहु खेल शिकार रे,
वन वपु ढूंढि स्यावज१ हु मार रे ॥टेक॥
मन मृग मांहिं तीस तिहिं लार रे,
चेतन चीता त्याँह२ परि डार रे ॥१॥
गुण गज हस्ती३ अनल अहार रे,
तृष्णा तीतर बाज विचारे रे ॥२॥
केसरी काम अधिक अधिकार रे,
शारदूल समिरण मुख जार रे ॥३॥
ये आयुध४ सुन समझि खिलार रे,
रज्जब उठ हो हुशियार रे ॥४॥१२॥
करने योग्य शिकार और उसके लिये शस्त्र बता रहे हैं -
✦ हे प्राणी ! यह हम बता रहे हैं सो शिकार खेल, शरीर रूप वन में खोजकर शिकार१ को मार ।
✦ शरीर के भीतर ही मन रूप मृग है और उसके साथ पंच ज्ञानेन्द्रिय तथा पचीस प्रकृति ये तीस मृगी हैं, इन पर चेतन रूप चीता छोड़ अर्थात चेतन आत्मा का चिन्तन करके इनको मार ।
✦ त्रिगुण रूप हाथियों को अस्तिस्व३ रूप अनल पक्षी को भोजन बना अर्थात आत्मा सत्य और सदा रहने वाला है इस भजन से असत्य गुणों को दबा । तृष्णा रूप तीतर को विचार रूप बाज से मार ।
✦ जिसका शरीर पर अधिक अधिकार हो रहा है, उस काम रूप सिंह को हरि स्मरण रूप शार्दूल के मुख से जला ।
✦ हे शिकार के खिलारी ! ये शस्त्र४ हैं इन्हें सम्यक् सुनकर समझ और सावधान होकर उठ खड़ा हो ।
(क्रमशः)

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