शुक्रवार, 13 मई 2022

*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ १०१/१०४*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ १०१/१०४*
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एक तत्त मंहि पंच ए, देखत घाट बिलाइ१ ।
कहि जगजीवन रांमजी, तुम ही राखौ आइ ॥१०१॥
(१. घाट बिलाइ-मार्ग भ्रष्ट हो गये)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि एक परम तत्व में ही पंच भौतिक तत्त्व है जो देखते देखते क्षण भर में ही पथभ्रष्ट होगये अब हे, प्रभु आप ही आकर बचा सकते हैं ।
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जब लगि राखै रांमजी, तब लगि रहै सरीर ।
कहि जगजीवन जागि जन, पीवहु अम्रित नीर ॥१०२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जब तक प्रभु जी चाहते हैं तब तक ही यह शरीर रहता है । अतः हे जीव जागो अज्ञान से निकलो । और ज्ञान द्वारा स्मरण रुपी अमृतजल पान करो ।
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सुरग म्रित्यु पाताल सुख, बांछै भोग बिलास ।
लै त्रिषणा नर मूढ की, सु कहि जगजीवनदास ॥१०३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि स्वर्ग मृत्यु लोक और पाताल सुख की इच्छा और भोग विलास की चाह यह तृष्णा में आसक्ति है जो संतो द्वारा जीव की मूढता कही गयी है ।
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कहि जगजीवन जनम नहिं, मरन नहीं, तिहिं ताप ।
अपन बूझै आप गति, सो हरि आपै आप ॥१०४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जब तक परमात्मा न चाहे तब तक न जन्म है न मृत्यु है । न उनसे उत्पन्न ताप है । प्रभु अपनी गति आप ही जानते हैं । वे स्वयं सब कुछ कर सकने में सक्षम है ।
(क्रमशः)

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