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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१९७)*
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*१९७. निज मार्ग निर्णय । चौताल*
*मैं पंथी एक अपार का, मन और न भावै ।*
*सोई पंथ पावै पीव का, जिसे आप लखावै ॥टेक॥*
*को पंथी हिंदू तुरक के, को काहू राता ।*
*को पंथी सोफी सेवड़े, को सन्यासी माता ॥१॥*
*को पंथी जोगी जंगमा, को शक्ति पंथ ध्यावै ।*
*को पंथी कमड़े कापड़ी, को बहुत मनावै ॥२॥*
*को पंथी काहू के चलै, मैं और न जानूं ।*
*दादू जिन जग सिरजिया, ताही को मानूं ॥३॥*
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भा०दी० - अहन्तु अद्वैतमार्गानुयायी । यो हि वेदान्तदर्शनेषु ब्रह्मप्राप्तिहेतुत्वेन प्रसिद्ध । नान्यो मार्गों मे रोचते । प्रभोरनुग्रहेणैवाद्वैतमार्गे स्थितिर्भवति ।
उक्त खण्डनखण्डखाद्ये प्रथम परिच्छेदे -
ईश्वरानुग्रहादेषा पुंसामद्वैतवासना ।
महाभयकृतत्राणा द्वित्राणां यदि जायते ॥
अन्यथा केचिद् द्वैतं द्वैताद्वैतं विशिष्टाद्वैतं मन्यन्ते । केचिच्च हिन्दूनां मतं केचन यवनमतेऽनुरक्ता दृश्यन्ते । केचित् सूफीमते केचित् सेवड़े-सन्यासिनां मते प्रचलन्ति । केचिच्च जङ्गम- मतं शाक्तमतमुपासते । एवं नानाविधानिमतमतान्तराणि जगति प्रचलन्ति परन्तु मम मते तु अद्वैतमार्ग एव कल्याणप्रदः सर्वश्रेष्ठो वर्तते । अतस्तमेव मार्गमवलम्बे ।
उक्तं हि विवेकचूडामणौ -
सकलनिगमचूडा स्वान्तसिद्धान्तरूपं ।
परममिदमतिगुहांदर्शितं ते मयाद्य॥
अपगतकलिदोषं कामनिर्मुक्तबुद्धि ।
स्वसुतवदसकृदत्वां भावयित्वा मुमुक्षुम्॥
हितमिममुपदेशमाद्रियन्तां विहित निरस्त समस्तदोषाः ।
भवसुखविरता: प्रशान्तचित्ताः श्रुतिरसिका यतयो मुमुक्षवो ये॥
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मैं अद्वैत मार्ग का अनुयायी हूँ । जो वेदान्तग्रन्थों में कल्याण करने वाला मार्ग प्रसिद्ध है मुझे और कोई मार्ग अच्छा नहीं लगता । इस अद्वैत मार्ग में प्रभु की कृपा से ही स्थिति बनती है ।
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खण्डनखण्डखाद्य में लिखा है कि –
किसी एक दो ही मनुष्यों को भगवत्कृपा से ही इस अद्वैतमार्ग में भावना होती है जो मार्ग महाभय से रक्षा करने वाला है । नहीं तो कितने ही द्वैतवादी, कितने हो विशिष्टाद्वैतवादी बने हुए हैं । कोई हिन्दू धर्म को अच्छा मानते हैं, कितने ही यवन धर्म को, कितने ही सूफी सेवड़े जंगमशाक्त मत को मानते हैं । इस प्रकार इस जगत् में नाना मत-मतान्तर प्रचलित हो रहे हैं परन्तु मेरी दृष्टि में तो एक अद्वैत मत ही कल्याणकारक मार्ग है ।
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विवेकचूड़ामणि में कहा है कि-
हे शिष्य ! कलि के दोषों से रहित कामना शून्य मुमुक्षुओं को अपने पुत्र के समान समझकर मैंने बारम्बार सकल शास्त्रों का सार शिरोमणि यह अतिगुह्य परम सिद्धांत तेरे सामने प्रकट किया है, वेदान्तविहित श्रवणादि के द्वारा चित्त के समस्त दोष निकल गये और संसार सुख से विरक्त, शान्तचित्त श्रुतिरहस्य के रसिक और मोक्षकामी हैं, वे यति-जन इस हितकारी उपदेश का आदर करें ।
(क्रमशः)

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