गुरुवार, 19 मई 2022

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १४*

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*जब झूझै तब जाणिये, काछ खड़े क्या होइ ।*
*चोट मुँहैं मुँह खाइगा, दादू शूरा सोइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग राम गिरी(कली) १, गायन समय प्रातः ३ से ५
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१४ नि:शंक संतशूर । कहरवा
रे मन शूर शंका क्यों माने१,
मरणे माँहिं एक पग ऊभा, जीवन जुगति न जाने ॥टेक॥
तन मन जाका ताको सोंपे, सोच पोच२ नहिं आने ।
छिन३ छिन होय जाय हरि आगे, तो भी फेरि न बाने४ ॥१॥
जैसे सती मरे पति पीछे, जलतों जीव न जाने ।
तिल में त्याग देय जग सारा, पुरुष नेह पहचाने ॥२॥
नख शिख सकल सौंज५ शिर रहता, हरि कारज परवाने६ ।
जन रज्जब जग पति सोइ पावे, उर अंतरि यूं ठानैं७ ॥३॥१४॥
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संत शूर की नि:शंकता दिखा रहे हैं -
✦ अरे मन ! संत शूर किसी की भी शंका मन में नहीं करता१ । वह जीवित मृतक होने के लिये एक निष्ठा रूप पैर से स्थिर खड़ा रहता है । विषय परायण जीवन की युक्ति को तो वह जानता ही नहीं ।
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✦ जिस प्रभु के तन मन हैं उसी के समर्पण करता है । मन में चिन्ता तथा कायरता२ नहीं आने देता है । खंड खंड३ होकर भी हरि के आगे जाता है । इतना कष्ट होने पर भी अपना भेष४ वा स्वभाव को नहीं बदलता ।
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✦ जैसे सती पति के पीछे मर जाती है - अपने जीवित शरीर को जलते हुये भी नहीं जान पाती अपने पति पुरुष के प्रेम को पहचान कर एक क्षण भर में सब जगत को त्याग देती है वैसे ही
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✦ संत नख से शिखा तक संपूर्ण शरीर के अंगों रूप सामग्री५ पर आने वाले कष्टों को शिर पर सहता है अर्थात स्वीकार करता है किंतु हरि प्राप्ति के साधन रूप कार्य को सप्रमाण६ करता है उसमें त्रुटि नहीं रहने देता । जो अपने हृदय में उक्त प्रकार निश्चय करता७ है, वही जगत पति प्रभु को प्राप्त करता है ।
(क्रमशः)

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