सोमवार, 2 मई 2022

*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ८१/८४*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ८१/८४*
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सुषन४ बिलंद दराज है, कीमत लहै न कोइ४ ।
कहि जगजीवन नूर५ मिलि, नूर सरीखा होइ ॥८१॥
{४-४. कोई लम्बे लम्बे(दीर्घ) पवित्र वचनों का मूल्य नहीं समझता} {५. नूर- ज्योति(प्रकाश)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि पवित्र वचन मूल्यवान है पर इनका मूल्य कोइ नहीं जानता संत कहते हैं कि तेज में मिलकर तेज भी तेज भी तेजोमय हो जाता है एक तेज प्रभु है दूसरा तेज प्रभु को जानने वाली आत्मा है ।
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सुषन जुलाव जगाव दिल, रांम रहीम करीम ।
कहि जगजीवन अलिफ़ बे, ते सेज समाहे जीम ॥८२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि पवित्र वचन रुपी प्रकाश ही दिल में जागृति करते हैं तब ही राम, रहीम, व करीम की महिमा जानी जाती है । वर्णमाला के अक्षरों से निर्मित प्रभु का नाम प्रभु सेज यानि परमात्मा का सानिध्य पाता है ।
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सुषन जुलाब सु लक्षणां, देखै दाल र जाल ।
रे जे सीन र सीन ए, स्वाद ज्वाद त्यूं लाल ॥८३॥
संतजगजीवन कहते हैं कि पवित्र शब्द ही सुलक्षण युक्त है । ये दाल, जाल से द, व ज ध्वनित होता है रे व सीन से स्वाद यानि आनंद व ज्वाद से से बहुमूल्य ध्वनित होता है ।
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आदि खुरद खुदाइ दे, सोहतियां बीमार ।
कहि जगजीवन बंदगी, सुहिदा साहिब लार ॥८४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आरम्भ में परमात्मा की जरा सी कृपा मिलने पर हमें उस कृपा की आदत बन जाती है उसके बिना कुछ अच्छा नहीं लगता है । ये ही पूजा है कि दास हो प्रभु के पीछे पीछे रहे ।
(क्रमशः)

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