बुधवार, 25 मई 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.२००

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२००)*
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*२००. अत्यन्त निर्मल उपदेश । दादरा*
*चलु रे मन ! जहाँ अमृत वना, निर्मल नीके संत जना ॥टेक॥*
*निर्गुण नांव फल अगम अपार, संतन जीवन प्राण अधार ॥१॥*
*सीतल छाया सुखी शरीर, चरण सरोवर निर्मल नीर ॥२॥*
*सुफल सदा फल बारह मास, नाना वाणी धुनि प्रकाश ॥३॥*
*तहाँ वास बसि अमर अनेक, तहँ चलि दादू इहै विवेक ॥४॥*
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भा०दी० - सत्सङ्गो हामृतफलपूर्णं वनमिवास्ति । यस्मिन् निर्मलसद्भक्षा लसन्ति । हे मम मन: ! त्वं तस्मिन् वने गच्छ । तत्र वृक्षरूपेभ्य: सद्भ्य: परब्रह्मपरमात्मनो नामरूपं फलं लभ्यते । तादृशफलानामनुचिन्तनमेवास्वादनम् । तदास्वादनेन सत्यं जीवनाथारो वाङ्मनोऽगोचरोऽपारः प्रभुः प्राप्यते । तस्मिन् ध्याने सद्रूपवृक्षाणां शीतलाछाया वर्तते । तस्या: सेवनेन शरीरं शीतलीभवति । तत्र भगवच्चरणारविन्दमेव सरो वर्तते । तस्य ध्यानरूयं सलिलं प्राणिनं निर्मलयति । तस्य बनस्य ध्यान-ज्ञाननिभानि फलानि मनोहराणि । ते वृक्षा निरन्तरं फलन्ति । अस्मात्सत्सङ्गरूपाद् बनाद् भक्ति- सांख्ययोगध्यानस्ख्या ध्वनिनिसर्गेण नि:सरति । तत्र सत्सङ्गवने निवासिनोऽनेके साथका अमरत्वं संयाताः । अतोऽस्माभिरपि तत्रैव गन्तव्यम् ।
नीतिशतके-
जावंधियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यं ।
मानोन्नति दिशति पापमपाकरोति ॥
चेत: प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्ति ।
सत्सङ्गतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ॥
सङ्गः सर्वात्मना हेय: स चेद्धातुं न शक्यते ।
स सद्भिः कर्तव्यः सतां सङ्गो हि भेषजम् ॥
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सत्संग एक अमृत का वन है । जिस वन में सत् पुरुष ही वृक्ष हैं । हे मेरे मन, तूं उस वन में चल । वहां पर सत्पुरुषरूपी वृक्षों से परब्रह्म परमात्मा का नामरूपी फल मिलता है । उस नामरूपी फल का ध्यान ही उसका भक्षण है । उस ध्यानरुपी भक्षण से सन्तों के जीवन का आधार, वाणी मन का अविषय, अपार प्रभु की प्राप्ति होती है । उस अमृत के वन में सन्तरूप वृक्षों की शीतल छाया बैठने को मिलती है । जिससे मनुष्यों को शरीर सुख मिलता है ।
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उस वन में भगवान् के चरणारविन्द ही तालाब हैं । उस तालाब का ध्यानरुपी जल प्राणियों को पवित्र बना देता है । उस अमृत वन के ध्यान-ज्ञानरूप जो फल हैं वे बहुत ही सुन्दर हैं । वह सन्त रूपी वृक्ष हमेशा फल देता रहता हैं । इस सत्संगरूपी वन से भक्ति, सांख्ययोग, ध्यान आदि अनेक विध ध्वनि निकलती रहती है । उस सत्संग वन में रहने वाले अनेक साधक अमर हो गये । इसलिये हमको भी वहां ही चलना चाहिये ।
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नीतिशतक में लिखा है कि –
सत्संगति से बुद्धि की जड़ता दूर हो जाती है । वाणी में सत्यता आ जाती है । मान और उन्नति मिलती है । पाप की निवृत्ति हो जाती है । चित्त प्रसन्न हो जाता है । सब दिशाओं में कीर्ति फैल जाती है । कहिये ? सत्संगति से क्या नहीं होता ? अर्थात् सब कुछ मिल जाता है । संग सर्वथा किसी का भी नहीं करना चाहिये । यदि आप संग को नहीं छोड़ सकते हो तो फिर वह सत्पुरुषों का ही करना चाहिये क्योंकि सत्पुरुषों का संग सब प्रकार के रोगों की औषधि है ।
(क्रमशः)

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