मंगलवार, 31 मई 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.२०३

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२०३)*
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*२०३. शब्द बाण । त्रिताल*
*संतों ! राम बाण मोहि लागे ।*
*मारत मृग मर्म तब पायो, सब संगी मिल जागे ॥टेक॥*
*चित चेतन चिंतामणि चीन्हा, उलट अपूठा आया ।*
*मंदिर पैसि बहुरि नहिं निकसै, परम तत्त घर पाया ॥१॥*
*आवै न जाइ, जाइ नहिं आवै, तिहिं रस मनवा माता ।*
*पान करत परमानन्द पायो, थकित भयो चलि जाता ॥२॥*
*भयो अपंग पंक नहि लागै, निर्मल संग सहाई ।*
*पूर्ण ब्रह्म अखिल अविनाशी, तिहिं तज अनत न जाई ॥३॥*
*सो शर लागि प्रेम प्रकाशा, प्रकटी प्रीतम वाणी ।*
*दादू दीन दयाल ही जानै, सुख में सुरति समानी ॥४॥*
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भाब्दी० - श्रीसद्गुरुणां 'आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः । असंगो निस्पृर शान्तो भ्रमात्संसारवानिव' इत्यादि ब्रह्म जीवात्मैक्यबोधकशब्दाः शर इव मे मनो निमिन्दन्ति के ज्ञानादज्ञाननिवृत्त्या प्राप्तबुद्धोऽस्मि । शब्दशक्तेरचिन्त्यत्वाच्छब्दादेवापरोक्षयोः । सुषुष्टः पुमायद्वच्छब्देनैवान बुद्ध्यते । यदा मम मनो मृगो शब्दवाणेविद्धो जायते तदा परमार्थरहस्यं मयाऽनुभूतम् । ममेन्द्रियाणि विषयासक्तिरूपां निद्रां विहाय जाग्रति । चित्तमपि चिन्तामणिरूयं चैतन्यं ब्रह्म घाव विषयस्पृहाविनिर्मुक्तो जातम् । हृदयमन्दिरे प्रविष्टं तद्ब्रह्म ध्यानायगच्छति । यतो हि तेन चिन परमानन्दस्वरूयं ब्रह्म प्राप्तम् । तत्रैवानन्दे निमज्जति । न पुनर्विषयेषु स्मृति । पूर्व तु चंचलस्वभाव क्षणमपि स्थिरं न भवति । अधुना तु वैराग्येणौदासिन्यं जातम् । न पापपड़े पतति किनु निर्मल ब्रह्म घ्यायत् तेनैव सह रमते नान्यत्रासज्यते । सद्गुरुशब्दशप्रतिघातेन हृदये प्रभुप्रेमाविर्भूतम् । ततस्तन- गुणानुकीर्तनन केवलं दीनबन्धु दयालु प्रभुमेव स्वीयं मन्यते । तत्रैव मनोवृत्या निवसति ।
उक्तं हि विवेकचूडामणौ -
तस्मान्मनः कारणमस्यजन्तो ।
बन्धस्य मोक्षस्य च वा विधाने ।
हेतुर्मलिनं रजोगुण-
मोक्षस्य विरजस्तमस्कम् ॥
मैत्रेयी -
चित्तमेवहि संसारस्तत्प्रयत्लेन शोधयेत् ।
यच्चितस्तन्मयो भवति गुह्यमेतत्सनातनम् ॥
चित्तस्य हि प्रसादेन हन्ति कर्म शुभाशुभम् ।
प्रसन्नात्माऽऽत्मनि स्थित्वा सुखमक्षयमश्नुते ॥
समासक्तं यदा चित्तं जन्तोर्विषयगोचरम् ।
यद्येवं ब्रह्मणि स्यात्तत्को नु मुच्येत बन्धनात् ॥
विवेकवैराग्यगुणातिरेकाच्छुद्धत्वमासाद्य मनो विमुक्त्यै ।
भवत्यतो बुद्धिमतो मुमुक्षो, ताभ्यां दृढाभ्यां भवितव्यमये ॥
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आत्मा साक्षी विभु पूर्ण एक मुक्त चैतन्य, अक्रिय असंग निःस्पृह और शान्त है । केवल भ्रम से ही अपने को संसार में आने वाला मानता है ।” इत्यादि सद्गुरु के जीव ब्रह्म की एकता बोधक जो वाक्य हैं वे मेरे हृदय में बाण की तरह चुभ गये । उन शब्दों से मुझे ज्ञान हुआ । ज्ञान से जब मेरा अज्ञान दूर हुआ, तब मैं जाग गया ।
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क्योंकि शब्द अचिन्त्य है । शब्द से ही ब्रह्म का अपरोक्ष ज्ञान होता है । जैसा सोया हुआ पुरुष शब्द से ही जागता है, वैसे ही अज्ञान निद्रा में सोने वाला भी शब्द से जाग जाता है । जब मेरा मनरूपी मृग वाणों से विंध गया तब ही मैं परमार्थ का रहस्य जान गया । मेरी इन्द्रियाँ भी विषयाशक्ति को त्याग कर जाग गई । चित्त भी चैतन्य रूप चिन्तामणि का ध्यान करके विषयों की स्पृहा से मुक्त हो गया ।
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अब मेरा मन हृदय मन्दिर में प्रविष्ट हुआ उस ब्रह्म के ध्यान को नहीं त्याग सकता । क्योंकि उसको परमानन्द स्वरूप ब्रह्म प्राप्त हो गया । अतः वह वहां ही आनन्द में मग्न है । अब उसका विषयों में आना जाना छूट गया । पहले तो चंचलता के कारण क्षण भर भी स्थिर नहीं रहता था अब तो विषयों से वैराग्य होने से उदासीन रहता है ।
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पाप की जड़ में प्रवृत्त नहीं होता । किन्तु निर्मल ब्रह्म का ध्यान करते हुए उसी में रमता रहता है । दूसरी जगह पर कहीं भी आसक्ति नहीं करता । मेरे हृदय में सद्गुरु के शब्द वाणों के लगने से प्रभुप्रेम पैदा तभी से मैं उसके ही गुणों को गाता हुआ दीन दयालु प्रभु को अपना मानता हूं । मेरे मन की वृत्ति भी उसी में लगी रहती है ।
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विवेकचूडामणि में लिखा है कि – इस जीव के बन्ध और मोक्ष के विधान में मन ही कारण है । रजोगुण से मलिन हुआ यह मन बन्धन का कारण है तथा रज तम से रहित शुद्ध सात्विक होने पर मोक्ष का कारण हो जाता है ।
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विवेक वैराग्यादि गुणों के उत्कर्ष से शुद्धता को प्राप्त हुआ मन मुक्ति का हेतु होता है । अतः पहले बुद्धिमान् मुमुक्षु के ज्ञान वैराग्य दोनों ही दृढ़ होने चाहिये चित्त ही संसार है । अतः प्रयत्न पूर्वक उसको शुद्ध करना चाहिये । जिसका जैसा चित्त होता है वैसा ही वह बन जाता है ।
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यह सनातन रहस्य है । चित्त के प्रशान्त हो जाने पर शुभाशुभ कर्म नष्ट हो जाते हैं और प्रशान्त मन वाला पुरुष जब आत्मा में स्थित होता है तब उसे अक्षय आनन्द की प्राप्ति होती है । मनुष्य का मन जितना इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होता है, उतना यदि ब्रह्म में हो जाय तो कौन बन्धन से मुक्त न होगा ?
(क्रमशः)

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