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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ५/८*
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कहि जगजीवन असम२ पर, अंबुज३ लहहिं बिगास ।
जल पावक होइ बिसतरै, पावक नीर निवास ॥५॥
{२. असम=अश्म(पत्थर)} (३. अंबुज-कमल का फूल)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु पत्थर जैसे कठोर भाग में भी कमल पुष्प खिला सकते हैं । जल में अग्नि व अग्नि में जल का निवास करवा सकते हैं । प्रभु सर्व भांति समर्थ हैं ।
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अैसी अदभुत साहिबी, कोइ न जांणै तास४ ।
का कोइ बूझै, का कहै, सु कहि जगजीवन दास ॥६॥
(४. तास=उस का)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि उन प्रभु का स्वामित्व कितना अद्भुत है उसे कोइ नहीं जान सकता है । संत कहते हैं कि क्या जाने और क्या कहे ? वह कोइ जानेगा तब ही तो कहेगा ।
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अंबु अनल अंबर अधर, एक भुवन मंहि बास ।
ना वो प्रजलै५ ए बुझै, सु कहि जगजीवनदास ॥७॥
(५. प्रजलै-जलता है)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु की लीला अद्भुत है । उन्होंने बिना किसी सहारे के जल अग्नि आकाश धरती आदि सबका निवास इस प्राण युक्त देह रुपी घर में करखा है । जिससे न तो कोइ जलता है न हीं कोइ बुझता है ।
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पांणी थैं पत्थर करै, पत्थर पांणी होइ ।
कहि जगजीवन अलख गति, समझै बिरला कोइ ॥८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु पत्थर से जल व जल से पत्थर का विकास करदेते हैं । उन प्रभु की गति कोई विरला ही समझ सकता है ।
(क्रमशः)

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