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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१९८)*
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*१९८. साधु मिलाप मंगल । चौताल*
*आज हमारे रामजी साधु घर आये,*
*मंगलाचार चहुँ दिशि भये, आनन्द बधाये ॥टेक॥*
*चौक पुराऊँ मोतियां, घिस चंदन लाऊँ ।*
*पंच पदारथ पोइ के , यहु माल चढ़ाऊँ ॥१॥*
*तन मन धन करूँ वारनैं, प्रदक्षिणा दीजे ।*
*शीश हमारा जीव ले, नौछावर कीजे ॥२॥*
*भाव भक्ति कर प्रीति सौं, प्रेम रस पीजे ।*
*सेवा वंदन आरती, यहु लाहा लीजे ॥३॥*
*भाग हमारा हे सखी, सुख सागर पाया ।*
*दादू को दर्शन भया, मिले त्रिभुवन राया ॥४॥*
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भा०दी० - अद्य ममान्तिके मां पवित्रीकर्तुं साधुरूपेण साक्षाद्भगवानेवागतोऽसि अतो ममान्त:करणे इन्द्रियादिषु च दर्शनेन परमानन्दो जात: । मुक्तामयीं मालां चन्दनञ्च समर्प्य स्वागतं विदधामि । धर्मार्थकाममोक्षाख्यां मालां निर्माय प्रेम्णा एतेषां पञ्चपदार्थानां मालां पञ्चविषयेभ्यो विरक्तिरूपां मालां वा भगवत्स्वरूपसाधुचरणारविन्देश्य: समर्पयामि । वपुर्मनो धनानि च समर्प्य तमहं प्रदक्षिणीकरोमि । हे सत्पुरुषरूप राम ! अस्माकं शिरो जीवात्मा च भावत्कमेवेति । तव चरण-शरणं करोमि । अहं श्रद्धाभावभरेण भक्त्याऽनुरागेण प्रेमरसमास्वादयन् भवत्सेवां नीराजनं कृत्वा महान्तं लाभं प्राप्तवानस्मि ।
हे साधुस्वरूप राम ! महाभाग्यवानहं येन सन्तदर्शनेन सुखसागरे निमज्जामि । साधुदर्शनव्याजेन साक्षात् त्रिभुवनपती राजा राम एव लब्धो मया । नरेना नगरे सन्तदर्शन कालेपद्यमिदं गीतम् ।
उक्तं योगवासिष्ठे
महतां दर्शनं नाम न कदाचन निष्फलम् ।
सङ्गादाल्हादयन्त्यन्त: शशाङ्ककिरणा इव ।
विवेचितार: कार्याणां निर्णेतारः क्षणादिव ॥
न सज्जनाहूरं क्वचिद् भवेद् भजेत साधून विनयक्रियान्वितः ।
स्पृशन्त्ययलेन हि तत्समीपगं विसारिणस्तद्गतपुष्परेणवः ।
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आज मेरे पास मुझे पवित्र करने के लिये सन्तरूपसे भगवान् ही आ गये हैं । इसलिये मेरे अन्तःकरण और इन्द्रियों में आनन्द समाया हुआ है । मोतियों की माला और चन्दन समर्पण करके मैं उनका स्वागत करता हूँ । धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और प्रेम से पांचों पदार्थ अथवा पांच विषयों से विरक्तिरूपी माला सन्तों के चरणों में अर्पण कर रहा हूँ । तन मन धन चरणों में समर्पण कर रहा हूँ ।
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हे सत्पुरुष के रूप में मेरे राम ! यह शिर और जीव आपका ही है, अतः आपके चरणों में समर्पित है । मैंने श्रद्धाभाव भरी भक्ति से प्रेमरस को पीता हुआ, सेवा आरती करके मैंने महान् लाभ प्राप्त कर लिया है । हे संत सखी ! मैं बड़ा ही भाग्यवान् हूँ जिससे संत दर्शन करके सुख के सागर में गोता खा रहा हूँ । संत दर्शन के ब्याज से आज मुझे त्रिलोकी के नाथ राजा राम ही साक्षात् मिल गये । नरेना नगर में सन्त दर्शन के समय का यह भजन है ।
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योगवासिष्ठ में लिखा है कि –
महापुरुषों के दर्शन कभी निष्फल नहीं जाते । जैसे चन्द्रमा की किरणें शान्ति प्रदान करने वाली होती हैं वैसे ही सन्त के समागम से हृदय प्रफुल्लित हो जाता है । कार्यों में उचित अनुचित का विवेक करने वाले तथा परस्पर विरोध की जगह सन्देह का निर्णय करने वाले सन्त होते हैं । इसलिये सज्जनों की संगति से कभी दूर मत भागो । किन्तु विनय से साधुओं की सेवा करो । उनके पास जाने वाले को अनायास ही शान्ति दान्ति आदि गुणरूप पुष्पों की सुगंध विशेष रूप से अपने आप हो जाती हैं ।
(क्रमशः)

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