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*हमहीं हमारा कर लिया, जीवित करणी सार ।*
*पीछे संशय को नहीं, दादू अगम अपार ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग राम गिरी(कली) १, गायन समय प्रातः ३ से ५
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१५ संत-शूर टेक । कहरवा
रे मन शूर समै१ क्यौं भागे,
ताथै मरण माँडि२ हरि आगे ॥टेक॥
शूरा शिर पर खेलै,
तब राव रंक कर पेलै३ ।
जब दूजा दिल नांहि,
तब डाकि पड्या दल मांहीं ॥१॥
स्थिर काल न कोई जीवे,
ताथै सार सुधा रस पीवे ।
ते चाकर चित्त माँहीं,
जे चोट मुंह मुंह खाँहीं ॥२॥
जब उतरि उतारै४ झूझै५,
तब व्यापक सब ही बूझे६ ।
जब शूरा शिर डारै,
तब रज्जब राम सुधारै ॥३॥१५॥
संत शूर अपनी बात को नहीं छोड़ता यह कह रहे हैं -
✦ अरे मन ! संत शूर साधन संग्राम से समय१ पर कैसै भाग सकता है । इसलिये वह मृत्यु को स्वीकार२ करके हरि के आगे जाता है ।
✦ संतशूर जब अहंकार रूप शिर पर खेलता है अर्थात निरभिमान स्थिति का आनन्द लेता है, तब राजा को भी रंक के समान दूर हटाता३ है । जब प्रभु को छोड़ कर दूसरा हृदय में नहीं रहता तब वह कामादि शत्रुओं को नाश करने के लिये उनके दल में कूद पड़ता है ।
✦ अर्थात उनको नष्ट करने का यत्न करता है । चिर काल तक कोई नहीं जीवित रहता इससे वह विश्व के सार रूप प्रभु के चिन्तन सुधा रस का ही पान करता है । जो आसुर गुण रूप शत्रुओं को चोट अपनी निष्ठा रूप मुख ही मुख पर खाते हुये उन्हें मार भगाते हैं, वे ही भक्त प्रभु के चित्त में बसते हैं ।
✦ जब योग संग्राम में उतर कर वह प्रभु पर न्यौछावर४ होता हुआ मुक्ति के प्रतिबन्धकों से युद्ध५ करता है तब सब में व्यापक ब्रह्म को समझने६ लगता है । इस प्रकार जब संत शूर अपने देहाभिमान को डाल देता है, तब उसके सब काम राम सुधारते हैं ।
(क्रमशः)

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