शुक्रवार, 27 मई 2022

*सर्व भूतों में हरि की सेवा*

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
*सालोक्य संगति रहै, सामीप्य सन्मुख सोइ ।*
*सारूप्य सारीखा भया, सायुज्य एकै होइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ निष्काम पतिव्रता का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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"गृहस्थ व्यक्ति निष्काम भाव से यदि किसी को कुछ दान दे, तो वह अपने ही उपकार के लिए होता है । परोपकार के लिए नहीं । सर्व भूतों में हरि विद्यमान है, उन्हीं की सेवा होती है । हरि सेवा होने से अपना ही उपकार हुआ, 'परोपकार' नहीं ।
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यही सर्व भूतों में हरि की सेवा है - केवल मनुष्य की नहीं, जीवजन्तुओं में भी हरि की सेवा यदि कोई करे, और यदि वह मान, यश, मरने के बाद स्वर्ग न चाहे, जिनकी सेवा कर रहा है उनसे बदले में कोई उपकार न चाहे - इस प्रकार यदि सेवा करे, तो उसका निष्काम कर्म, अनासक्त कर्म होता है ।
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इस प्रकार निष्काम कर्म करने पर उसका अपना कल्याण होता है । इसी का नाम कर्मयोग है । यह कर्मयोग भी ईश्वर को प्राप्त करने का एक उपाय है, परन्तु यह मार्ग है बड़ा कठिन । कलियुग के लिए नहीं है । "इसलिए कहता हूँ, जो व्यक्ति अनासक्त होकर इस प्रकार कर्म करता है, दया दान करता है, वह अपना ही भला करता है ।
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दूसरों का उपकार, दूसरों का कल्याण - यह सब ईश्वर करते हैं जिन्होंने जीव के लिए चन्द्र, सूर्य, माँ बाप, फल, फूल, अनाज पैदा किया है । पिता आदि में जो स्नेह देखते हो, वह उन्हीं का स्नेह है, जीव की रक्षा के लिए ही उन्होंने यह स्नेह दिया है ।
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दयालु के भीतर जो दया देखते हो, वह उन्हीं की दया है, उन्होंने असहाय जीव की रक्षा के लिए दी है । तुम दया करो या न करो, वे किसी न किसी उपाय से अपना काम करेंगे ही । उनका काम रुका नहीं रह सकता । इसीलिए जीव का कर्तव्य क्या है ? वह यह कि उनकी शरण में जाना, और जिससे उनकी प्राप्ति हो, उनका दर्शन हो उसी के लिए व्याकुल होकर उनसे प्रार्थना करना - और दूसरा क्या ?
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"शम्भू ने कहा था, 'मेरी इच्छा होती है कि अनेक डिस्पेन्सरियाँ (दवाखाने), अस्पताल बनवा दूँ । इससे गरीबों का बहुत उपकार होगा ।’ मैंने कहा, 'हाँ, अनासक्त होकर यदि यह सब करो तो बुरा नहीं ।’ परन्तु ईश्वर पर आन्तरिक भक्ति न रहने पर अनासक्त बनना बड़ा कठिन है ।
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फिर अनेक काम बढ़ा लेने से न जाने किधर से आसक्ति आ जाती है, जाना नहीं जाता । मन में सोचता हूँ कि निष्काम भाव से काम कर रहा हूँ, परन्तु सम्भव है, यश की इच्छा हुई, ख्याति प्राप्त करने की इच्छा हुई । फिर जब अधिक कर्म करने को जाता है तो कर्म की भीड़ में ईश्वर को भूल जाता है ।
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और कहा 'शम्भू ! तुमसे एक बात पूछता हूँ । यदि ईश्वर तुम्हारे सामने आकर प्रकट हों तो क्या तुम उनसे कुछ डिस्पेन्सरियाँ या अस्पताल माँगोगे या स्वयं उन्हें माँगोगे ?' उन्हें प्राप्त करने पर और कुछ भी अच्छा नहीं लगता । मिश्री का शरबत पीने पर फिर गुड़ का शरबत अच्छा नहीं लगता ।
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"जो लोग अस्पताल, डिस्पेन्सरी खोलेंगे और इसी में आनन्द अनुभव करेंगे, वे भी भले आदमी हैं । परन्तु उनकी श्रेणी अलग है । जो शुद्ध भक्त है, वह ईश्वर के अतिरक्त और कुछ भी नहीं चाहता; अधिक कर्म के बीच में यदि वह पड़ जाय तो व्याकुल होकर प्रार्थना करता है, 'हे ईश्वर, दया करके मेरा कर्म कम कर दो, नहीं तो, जो मन रातदिन तुम्हीं में लगा रहेगा, वह मन व्यर्थ में इधर-उधर खर्च हो रहा है । उसी मन से विषय का चिन्तन किया जा रहा है ।’
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शुद्धा भक्ति की श्रेणी अलग ही होती है । ईश्वर वस्तु है, बाकी सभी अवस्तु - यह बुद्धि न होने पर शुद्धा भक्ति नहीं होती । यह संसार अनित्य है, दो दिन के लिए है, और इस संसार के जो कर्ता हैं, वे ही सत्य हैं; नित्य हैं । यह ज्ञान न होने पर शुद्धा भक्ति नहीं होती ।
"जनक आदि ने आदेश पाने पर ही कर्म किया है ।"
(क्रमशः)

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