शुक्रवार, 27 मई 2022

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १८*

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*मन इन्द्रिय स्थिर करे, कतहुं नहिं डोले ।*
*जग विकार सब परिहरे, मिथ्या नहिं बोले ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद. ३२८)
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग राम गिरी(कली) १, गायन समय प्रातः ३ से ५
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१८ दु:ख से सुख । एकताल
पहले दुख पीछे सुख होई, ताको सहज कहै जन जोई ॥टेक॥
ज्यो जीभहिं पढाव पाठ१२, अह निशि दुख अंतर गति गाढ ।
पढै पाठ पीछे सुख जाणि, सहजैं पड़ै जीभ को बाणि ॥१॥
ज्यों कुरंग१ कसणी२ में आणी३, दगध्यों४ तजे बाहिली५ बाणी६ ।
संकट पड़ि मृग मनुष्य मेल, पीछे भया सहज का खेल ॥२॥
जैसे विपति बाज शिर होय, तिल७ तिल त्रास रहे मति सोय ।
पहले कठिन कसौटी८ खाय९, पीछे मुकता१० आवै जाय ॥३॥
मन इन्द्री ऐसी विधि साधि११, सब सौं तोरि नाम विच बाँधि ।
रज्जब संत असहज समाई, पीछे मिलै सहज को जाई ॥४॥१८॥
✦ पहले साधन का दु:ख होता है, पीछे उसका फल प्रभु प्राप्ति रूप सुख होता है, उसे ही जो संतजन है सो सहज सुख कहते हैं ।
✦ जैसे जिह्वा को पाठ१२ पढाया जाता है तब उसे हृदय के भीतर ले जाकर दृढ करने के लिये दिन रात रटने को दु:ख उठाया जाता है । पीछे पाठ कंठस्थ हो जाता है तब सुख ज्ञात होता है । फिर तो जिह्वा की आदत पड़ने पर अनायस ही उच्चारण होने लगता है ।
✦ जैसे मृग१ को वन से लाकर३ पढाने का कष्ट२ देते हैं तब दु:ख४ देने से वन में रहने की बाहरी५ आदत६ छोड़ देता है । दु:ख में पड़ने से मृग का मनुष्य से मेल जाता है पीछे तो मृग के लिये सब खेल सुगम हो जाता है ।
✦ जैसे बाज को पकड़ते हैं तब पहले तो उसके शिर पर विपत्ति ही आती है । प्रतिक्षण७ पकड़ने का कष्ट उसकी बुद्धि मे रहता है । किंतु पहले पढने का कठिन कष्ट८ सहन९ कर लेता है तब पीछे बन्धन-रहित१० आता जाता है ।
✦ उक्त प्रकार ही मन इन्द्रियों को साधन कष्ट के अधीन११ करके तथा सबसे उसका संबंध तोड़ कर प्रभु के नाम में बाँध, अर्थात नाम परायण कर । पहले संत असहज अर्थात साधन कष्ट में रहते हैं तब पीछे सहज स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं ।
(क्रमशः)

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