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*दादू निर्मल शुद्ध मन, हरि रंग राता होइ ।*
*दादू कंचन कर लिया, काच कहै नहीं कोइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ मन का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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“रागभक्ति के आने पर अर्थात् ईश्वर पर प्यार होने पर मनुष्य उन्हें पाता है । वैधी भक्ति जिस तरह होती है, उसी तरह चली भी जाती है । इतना जप करना है, इतना ध्यान करना है, इतना याग यज्ञ और होम करना है, इन उपचारों से पूजा करनी है, पूजा के समय इन मन्त्रों का पाठ करना है, ये सब वैधी भक्ति के लक्षण हैं । यह होती है जैसे, जाती भी है वैसे ही । कितने आदमी कहते हैं, 'अरे भाई, कितना हविष्यान्न किया, कितनी बार घर में पूजा की, परन्तु क्या हुआ ?"
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रागभक्ति का कभी पतन नहीं होता । रागभक्ति उन्हें होती है जिनका बहुत सा काम पूर्व जन्म से किया हुआ है; अथवा जो लोग नित्य-सिद्ध हैं । जैसे किसी गिरी हुई इमारत का ढेर साफ करते हुए लोगों को एक नलदार फव्वारा मिल गया । उसके ऊपर मिट्टी और सुरखी पड़ी हुई थी, ज्योंही सब कूड़ा हटा दिया गया कि जोरों से पानी निकलने लगा ।
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"जिन्हें रागभक्ति होती है, वे यह बात नहीं कहते कि भाई इतना हविष्यात्र किया, परन्तु कहीं कुछ न हुआ । जो लोग पहले पहल किसानी करते हैं, अगर उपज नहीं होती तो वे किसानी छोड़ देते हैं । जिसके पुश्त-दरपुश्त से खेती हो रही है, वह यह काम नहीं छोड़ता, चाहे दो-एक बार पैदावार अच्छी न भी हो । वे जानते है कि खेती से ही उनका जीवन-निर्वाह होगा ।
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"जिनमें रागभक्ति है, उनका भाव आन्तरिक है, उनका भार ईश्वर लेते हैं । अस्पताल में नाम लिखाने पर जब तक रोगी अच्छा नहीं हो जाता तब तक डाक्टर छोड़ता नहीं । ईश्वर जिन्हें पकड़े हुए हैं उनके लिए किसी भय की बात नहीं । खेत की मेंड़ पर से चलते हुए जो लड़का अपने बाप का हाथ पकड़े रहता है, वह चाहे भले ही गिर जाय - सम्भव है वह किसी दूसरे ख्याल में डूबकर बाप का हाथ छोड़ दे, परन्तु जिस लड़के को बाप खुद पकड़े रहता है, वह कभी नहीं गिर सकता ।
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"विश्वास से क्या नहीं होता ? जो सच्चे मार्ग पर है, वह सब पर विश्वास करता है - साकार, निराकार, राम, कृष्ण, भगवती - सब पर ।
"उस देश (कामरपुकुर) में मैं जा रहा था, एकाएक रास्ते में आँधी और पानी एक साथ आये । बीच मैदान में डाकुओं का भी भय था । तब मैंने सब कुछ कह डाला - राम, कृष्ण, भगवती, फिर मैंने हनुमानजी की याद की ! अच्छा मैंने सब कुछ कहा, इसका क्या अर्थ है ?
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“बात यह है जब कि नौकर या नौकरानी बाजार करने को पैसे लेती है तब हर चीज के पैसे अलग अलग लेती है, कहती है - ये आलू के पैसे हुए, ये बैंगन के, ये मछली के, इस तरह सब पैसे अलग अलग लेती है । सब हिसाब करके फिर पैसे मिला देती है ।
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"ईश्वर पर प्यार होने पर केवल उन्हीं की बात कहने को जी चाहता है । जो जिसे प्यार करता है, उसे उसी की बातें सुनते और कहते हुए प्रीति होती है । संसारी आदमियों के मुँह से अपने बच्चे की बातें करते हुए लार टपक पड़ती है । अगर कोई उसके बच्चे की तारीफ करता है तो वह अपने बच्चे से उसी समय कहता है, अरे देख अपने चाचा को पैर धोने के लिए पानी तो ले आ ।
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"कबूतरों पर जिनकी रुचि है, उनके पास कबूतरों की तारीफ करो तो खुश हो जाते है । अगर कोई उनकी निन्दा करता है, तो वह कहता है, तुम्हारे बाप-दादे ने भी कभी कबूतरों को पाला है ?
(महिमाचरण से) "संसार को एकदम छोड़ देने की क्या जरूरत है ? आसक्ति के जाने ही से हुआ, परन्तु साधना चाहिए । इन्द्रियों के साथ लड़ाई करनी पड़ती है ।
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“किले के भीतर से लड़ने में और सुविधाएँ हैं । वहीं बड़ी सहायता मिलती है । संसार भोग की जगह है । एक-एक चीज का भोग करके उसी समय उसे छोड़ देना चाहिए । मेरी इच्छा थी कि सोने की करधनी पहनूँ । अन्त में वह मिली भी । मैंने सोने की करधनी पहनी । पहनने के बाद उसे उसी समय खोल डाला ।
"प्याज खाया और उसी समय विचार करने लगा । कहा, रे मन, यही प्याज है ।' फिर मुँह में एक बार इधर, एक बार उधर, इस तरह चबाकर उसे फेंक दिया ।"
(क्रमशः)

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