🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
https://www.facebook.com/DADUVANI
भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२०१)*
===============
*२०१. चौताल*
*चलो मन माहरा, जहाँ मित्र अम्हारा ।*
*तहँ जामण मरण नहिं जाणिये, नहिं जाणिये ॥टेक॥*
*मोह न माया, मेरा न तेरा, आवागमन नहीं जम फेरा ॥१॥*
*पिंड पड़ै नहीं प्राण न छूटै, काल न लागै आयु न खूटै ॥२॥*
*अमर लोक तहँ अखिल शरीरा, व्याधि विकार न व्यापै पीरा ॥३॥*
*राम राज कोई भिड़ै न भाजै, सुस्थिर रहणा बैठा छाजै ॥४॥*
*अलख निरंजन और न कोई, मित्र अम्हारा दादू सोई ॥५॥*
.
भा०दी० - हे मन: ! यत्र मम परमसुहृद्वर्तते तत्रैव त्वयाऽपि गन्तव्यमिति पुन: पुनस्त्वां संबोधयामि । नहि तत्र जन्ममरणादिक्लेशैः परिचितो भवति । न हि तत्र मोहो माया ममत्वभावो, गमनागमनं, यममयातनादिकं सन्ति । न च शरीरं जीर्यते । प्राणा अपि न निर्गच्छन्ति । न च तत्र कालबलं प्रभवति । आयुरपि सुस्थिरीभवति । स च लोकोऽमरनाम्ना व्यपदिश्यते । न हि तत्र कोऽपि व्याधिभिः पीड्यते । न च रामराज्ये कोऽपि युद्ध्यति केनाऽपि सह । न च भयमाप्नोति । तत्र सुदृढा स्थिरतया स्थितिरस्ति । अर्थात् स देश: परमात्मरूयो यत्र गत्वा न निवर्तते, न शोचति, न जायते तथा न प्रियते कश्चिदपीतिभावः ।
उक्तं हि तैत्तिरीयोपनिषदि - अहं वृक्षस्यरेरिवा । कीर्तिपृष्टंगिरेरिव । उर्ध्वपवित्रो वाजिनीव । द्रविणं सवर्चसम् । सुमेधा अमृतोक्षित: । इति त्रिशङ्कोर्वेदानुवचनम् ।
.
हे मन ! जहाँ मेरा परम मित्र रहता है वहां ही तुमको भी चलना चाहिये, यह मैं तुम से बार-बार कहता हूँ क्योंकि वहां जन्म-मरण का क्लेश नहीं है । कोई जन्म-मरण से अपरिचित ही नहीं है । न वहां पर मोह है, न माया है, और तेरा-मेरा भाव भी वहां कोई नहीं करता । न आना-जाना पड़ता, न यम की यातना ही सहनी पड़ती ।
.
शरीर भी नष्ट नहीं होता । प्राण भी कहीं नहीं आते-जाते । काल का बल भी वहां नहीं चलता । आयु भी नष्ट नहीं होती । उस लोक का नाम अमरलोक है । वहां पर किसी को भी कोई व्याधि का कष्ट नहीं होता । वहां तो राम का राज्य है । न कोई किसी से लड़ता, न कोई किसी से डरता । वहां तो स्थिर होकर बैठना पड़ता है, अर्थात् वह ब्रह्म देश है, वहां जाकर वापस कोई भी नहीं आता । न वहां कोई शोक चिन्ता है, न कोई जन्मता मरता है ।
.
तैत्तिरीयोपनिषद् में लिखा है कि –
मैं संसार वृक्ष का छेदन करने वाला हूँ । मेरी कीर्ति पर्वत के शिखर की तरह अनन्त है । अन्नोत्पादक शक्ति से युक्त सूर्य में जैसे उत्तम अमृत है उसी प्रकार मैं भी अतिशय पवित्र अमृत हूँ तथा मैं प्रकाशयुक्त धन का भण्डार हूं । परमानन्दमय अमृत से अभी अभिषिन्चित तथा श्रेष्ठबुद्धि वाला हूँ । यह त्रिशंक ऋषि का अनुभव किया हुआ वैदिक प्रवचन है ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें