रविवार, 29 मई 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.२०२

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२०२)*
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*२०२. बेली । त्रिताल*
*बेली आनन्द प्रेम समाइ ।*
*सहजैं मगन राम रस सींचै, दिन दिन बधती जाइ ॥टेक॥*
*सतगुरु सहजैं बाही बेली, सहज गगन घर छाया ।*
*सहजैं सहजैं कोंपल मेल्है, जाणै अवधू राया ॥१॥*
*आतम बेली सहजैं फूलै, सदा फूल फल होई ।*
*काया बाड़ी सहजैं निपजै, जानैं विरला कोई ॥२॥*
*मन हठ बेली सूखण लागी, सहजैं जुग जुग जीवै ।*
*दादू बेली अमर फल लागै, सहज सदा रस पीवै ॥३॥*
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भा•दी• परमार्थविषयिणी बुद्धिरियं लतातुल्या । इयं हि रामभक्तिरसाभिषिक्ता परमानन्दस्यन्दिनी, सा च बुद्धिलता सततं वर्धमानमङ्कुरं जनयति । विस्तृता भवति । अर्थात् समाधौ सहजावस्थायां सततं परब्रह्मणि समन्वेति । अस्या हृदये समारोपणं सद्गुरुकृतमस्ति । सा च सदा वर्धमाना शरीरे मनसि वाचि विस्तृता जाता । अर्थादिन्द्रियाणि मनो वाक् च परमार्थ विषयाणि जातानि । वृदयङ्कुरं जनयति । कथं सा वृदयङ्कुरं जनयतीति अवधूता एव विजानन्ति । तस्यां बुद्धिलतायां वर्धमानायां भक्ति-पुष्पं ज्ञानफलं प्रादुर्भवति । एकबारं समुत्पन्नं भक्तिपुष्पं ज्ञानफलञ्च बुद्धौ दृढस्थिर-प्रत्ययमातनोति । इत्थं बुद्धिलतेयं कायोद्याने हृदयभूमौ चोद्भवतीति विरला एव विदन्ति । सेयं परमार्थ- विषयिणी बुद्धिर्यदि विषयवासनाविलसिता भवेत्तर्हि वासनाऽग्निनाशुष्यति । तस्माद् वासनातो बुद्धि सदा रक्षणीया । यदि कश्चित्साधक: सहजावस्थायां तस्या आनन्दरसं पिबेत्तर्हि सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तो ब्रह्मतामाप्नोति ।
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उक्तं हि विवेकचूडामणौ -
ज्ञाते वस्तुन्यपि बलवती वासना नादिरेषा ।
कर्ताभोक्ताऽप्यहमितिदृढा याऽस्य संसारहेतुः ॥
प्रत्यग्दृष्ट्यात्मनि निवसता सापनेया यत्नात्-
न्मुक्तिं प्राहुस्तदिहमुनयो वासनातानवं यत्
लोकवासनया जन्तोः शास्त्रवासनयाऽपि च ।
देहवासनया ज्ञानं यथावन्नैव जायते ॥
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परमार्थविषयिणी बुद्धि को ही यहां लता कहा गया है । जैसे लता बढ़ती है ऐसे ही यह बुद्धिलता भी रामभक्ति रस से सींचने पर प्रतिदिन बढ़ती रहती है अर्थात् समाधि सहजावस्था में जाकर परब्रह्म में लीन हो जाती है । इस लता को सद्गुरु ने हृदय में लगाईं है अर्थात् सद्गुरु की कृपा से पैदा होती है । वह प्रतिदिन बढ़ती हुई शरीर मन वाणी आदि पर फैल जाती है ।
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अर्थात् फिर तो बुद्धि की तरह सारी इन्द्रियाँ मन वाणी भी ब्रह्म विषयक बन जाते हैं । इस बुद्धि में वृद्धि रूप अंकुर कैसे निकलता है इसको अवधूत महात्मा ही जान सकते है । इस बढ़ी हुई परमार्थ विषयिणी बुद्धि में भक्तिरूपी पुष्प और ज्ञान रूपी फल लगते हैं । एक बार भी यदि बुद्धि में भक्ति पुष्प और ज्ञान फल लग जाता है तो वह फिर स्थिर हो जाता है ।
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लेकिन यह बुद्धि काया बगीचे में और हृद्यभूमि में पैदा होती है इसको बिरला ही जानते हैं । यदि यह परमार्थ विषयिणी बुद्धि विषयवासना से ग्रस्त हो जायेगी तो वासना अग्नि इसको सुखा देगी । इसलिये वासना से इसकी सदा रक्षा करनी चाहिये । यदि कोई साधक सहजावस्था में इसके आनन्द रस का पान करले तो वह द्वन्द्वातीत होकर ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है ।
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विवेकचूड़ामणि में लिखा है कि –
आत्मा का ज्ञान हो जाने पर भी जो ‘मैं कर्ता भोक्ता हूँ’ इस रूप से वासना दृढ़ होकर जन्म-मरण रूप संसार का कारण होती है । इस प्रबल अनादि वासना को आन्तरिक दृष्टि से आत्मस्वरूप में स्थित होकर प्रयत्नपूर्वक दूर करना चाहिये क्योंकि इस शरीर में वासना की क्षीणता को ही मुक्ति कहा है । लोकवासना शास्त्रवासना और देहवासना इन तीनों वासनाओं के कारण ही जीव को ठीक ठीक ज्ञान नहीं होता ।
(क्रमशः)

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