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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ १/४*
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रांम अलख सम्रथ धणी, सकल करै सब जांणि ।
कहि जगजीवन लोक सब, अधर धरै अंन पांणि३ ॥१॥
(३. अंन पांणि--खाने, पीने के लिये भोजन एवं जल)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम अदृश्य होते हुये भी सबके मालिक हैं । सब जानते व करते हैं । वे सबके भोजन पानी की व्यवस्था करते हैं ।
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सकल पसारा४ हरि किया, ब्रह्मा विसनु महेस ।
तब यहु धरती धरनि कूं, कहाँ हुता कहु देस ॥२॥
(४. पसारा=सृष्टि विस्तार)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु ने ही यह सब सृष्टि विस्तार किया है । ब्रह्मा विष्णु, महेश बनकर, जग किया पालन किया पुनःसंहार किया । नहीं तो यह संसार कहाँ टिकता ।
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आप धर्यौ सब अंग कूं, खेलै खेल अनंत ।
जगजीवन ता पुरुष कूं, (कोइ) चीन्है विरला संत ॥३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु ने आप सब अंग या भाग बनाए हैं और अब उनकी लीलाओं को कोइ विरले संत ही जानते हैं ।
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जगजीवन धरती थंभी१, जिनि हरि थंभ्या अकास ।
सोई थांभै प्राण कूं, पोखै दे दे ग्रास॥४॥
(१. थंभी-स्थिर हुई)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिन प्रभु ने यह धरती थाम रखी है, जिन्होंने आकाश थाम रखा है । वे ही एक एक ग्रास देकर इस जीव का पोषण करते हैं यह ही प्रभु की उदारता है ।
(क्रमशः)

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