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*सोई मार्ग हमहिं बताओ, जेहि पंथ पहुँचे पारा ।*
*भूलि न परै उलट नहीं आवै, सो कुछ करहु विचारा ॥*
*गुरु उपदेश देहु कर दीपक, तिमिर मिटे सब सूझे ।*
*दादू सोई पंडित ज्ञाता, राम मिलन की बूझे ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद्यांश. १९३)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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"उपमा एकदेशी है । तुमने न्यायशास्त्र नहीं पढ़ा । बाघ की तरह भयानक कहने से आप की तरह एक भारी दुम या बड़े भारी मुख से अर्थ हो, सो नहीं । (सभी हँसे ।)
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"मैंने केशव सेन से वही बात कही थी । केशव ने पूछा - 'महाराज, क्या परलोक हैं ?' मैंने न इधर बताया और न उधर कहा, कुम्हार लोग मिट्टी के बर्तन बनाकर सूखने के लिए बाहर रखते हैं । उनमें पक्के बर्तन भी है और फिर कच्चे बर्तन भी । कभी कोई जानवर आकर उन्हें कुचलकर चले जाते हैं ।
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पक्के बर्तन टूट जाने पर कुम्हार उन्हें फेंक देता है, परन्तु कच्चे बर्तन टूट जाने पर उन्हें कुम्हार फिर घर में लाता है, लाकर पानी मिलाता है और उसे गीला करके रगड़कर फिर चाक पर चढ़ाता और नया बर्तन बना लेता है; छोड़ता नहीं । इसीलिए केशव से कहा, जब तक कच्चा रहेगा तब तक कुम्हार नहीं छोड़ेगा, जब तक ज्ञान प्राप्त नहीं होता, जब तक ईश्वर का दर्शन नहीं मिलता, तब तक कुम्हार फिर चाक पर डालेगा; छोड़ेगा नहीं ।
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अर्थात् लौट-लौटकर इस संसार में आना पड़ेगा - छुटकारा नहीं । उन्हें प्राप्त करने पर तब मुक्ति होती है, तब कुम्हार छोड़ देता है, क्योंकि उसके द्वारा माया की सृष्टि का कोई काम नहीं होता । ज्ञानी माया के परे चले गये हैं; वे फिर माया के संसार में क्या करेंगे ?
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"परन्तु किसी किसी को वे माया के संसार में रख देते हैं, लोक शिक्षा के लिए । लोगों को शिक्षा देने के लिए ज्ञानी विद्यामाया का सहारा लेकर रहते हैं । ईश्वर ही अपने काम के लिए उन्हें रख छोड़ते हैं, जैसे शुकदेव, शंकराचार्य । अच्छा, आप क्या कहते हैं, मनुष्य का क्या कर्तव्य है ?”
बंकिम – (हँसते हँसते) - यदि आप पूछते ही हैं तो उसका कर्तव्य है, आहार, निद्रा और मैथुन ।
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श्रीरामकृष्ण - (विरक्त होकर) – ओह ! तुम बहुत ही बेहूदे हो ! तुम दिन-रात जो करते हो वही तुम्हारे मुख से निकल रहा है । लोग जो कुछ खाते हैं उसी की डकार आती है । मूली खानेपर मूली की डकार आती है । नारियल खाने पर नारियल की डकार आती है । कामिनी-कांचन में दिन-रात रहते हो और वही बात मुख से निकल रही है । केवल विषय का चिन्तन करने से हिसाबी स्वभाव बन जाता है, मनुष्य कपटी बन जाता है ।
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ईश्वर का चिन्तन करने पर सरल होता है, ईश्वर का साक्षात्कार होने पर ऐसी बातें कोई नहीं कहेगा । "यदि ईश्वर का चिन्तन न हो, यदि विवेक-वैराग्य न हो तो केवल विद्वत्ता रहने से क्या होगा ? यदि कामिनी-कांचन में मन रहे, तो केवल पण्डिताई से क्या होगा ?
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"गिद्ध बहुत ऊँचाई पर उड़ता है, परन्तु दृष्टि उसकी केवल मरघट पर ही रहती है । पण्डितजी अनेक पुस्तकें, शास्त्र पढ़ते हैं, श्लोक झाड़ सकते हैं, कितनी ही पुस्तकें लिखते हैं, परन्तु औरत के प्रति आसक्त हैं, धन और मान को सार समझते हैं, वह फिर कैसा पण्डित ? ईश्वर में यदि मन न रहा तो फिर क्या पण्डित और क्या उसकी पण्डिताई ?
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"कोई-कोई समझते हैं कि ये लोग केवल ईश्वर-ईश्वर कर रहे हैं; पगले हैं ! ये लोग बौरा गये हैं । हम कैसे चालाक हैं, कैसे सुख भोग रहे हैं - धन-सम्मान, इन्द्रिय-सुख । कौआ भी समझता है, मैं बहुत चालाक हूँ, परन्तु सबेरे उठकर ही दूसरों की विष्ठा खाता हैं । कौओं को नहीं देखते हो, कितनी ऐंठ के साथ घुमते-फिरते हैं, बड़े सयाने ! (सभी चुप हैं ।)
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"जो लोग ईश्वर का चिन्तन करते हैं, विषय में आसक्ति, कामिनी-कांचन में प्रेम दूर करने के लिए दिन-रात प्रार्थना करते हैं, जिन्हें विषय का रस कडुवा लगता है, हरि-पाद पद्म की सुधा को छोड़कर जिन्हें और कुछ भी अच्छा नहीं लगता, उनका स्वभाव हंस का सा होता है । हंस के सामने दूध-जल मिलाकर रखो, जल छोड़कर दूध पी जायगा । हंस की चाल देखी है ? एक ओर सीधा चला जायेगा ।
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और शुद्ध भक्ति की गति भी केवल ईश्वर की ओर होती है । वह और कुछ नहीं चाहता । उसे और कुछ भी अच्छा नहीं लगता । (बंकिम के प्रति कोमल भाव से) आप कुछ बुरा न मानियेगा ।"
बंकिम - जी, मैं यहाँ मीठी बातें सुनने नहीं आया हूँ ।
(क्रमशः)

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