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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१९१)*
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*१९१. सांच झूठ निर्णय प्रतिपाल*
*सांई को साच पियारा ।*
*साचै साच सुहावै देखो, साचा सिरजनहारा ॥टेक॥*
*ज्यों घण घावां सार घड़ीजे, झूठ सबै झड़ जाई ।*
*घण के घाऊँ सार रहेगा, झूठ न मांहि समाई ॥१॥*
*कनक कसौटी अग्नि-मुख दीजे, पंक सबै जल जाई ।*
*यों तो कसणी सांच सहेगा, झूठ सहै नहिं भाई ॥२॥*
*ज्यों घृत को ले ताता कीजे, ताइ ताइ तत्त कीन्हा ।*
*तत्तैं तत्त रहेगा भाई, झूठ सबै जल खीना ॥३॥*
*यों तो कसणी साच सहेगा, साचा कस कस लेवै ।*
*दादू दर्शन सांचा पावै, झूठे दरस न देवै ॥४॥*
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भा०दी० सृष्टिकर्ता प्रभुः सत्यप्रियः सत्यरूपत्वात् । यथाऽनवरतं घनाहतं लौह सुवर्णञ्चाग्नितापेन तप्तं शुद्धं सज्जनमण्डनं भवति । सद्गुरुशब्दाघातैः शिष्यान्तःकरणं निर्विकार सज्जानाग्निना शुद्धं सद्ब्रह्मसाक्षात्कारयोग्यं भवति । सत्यं शुद्धं हि वस्तु घनाघातं सहते । अन्यत्तु तद्घातेन नश्यति । तथा च यथाऽग्नितापे परीक्षितं सुवर्ण निर्मलं निष्कलङ्कं भवति । तथैव शिष्योऽपि ज्ञानाग्निदग्धकर्मा निर्विकारो निष्कामो निण्याप: सन् ब्रह्माकारतामेति । यस्त्वसच्छिष्यः शीतोष्णादि द्वन्द्वमसहमान: कामक्रोधादितापेन संतप्तो न ब्रह्मज्ञानाय कल्प्यते । एवमसत्यसाधनपरेण शिष्येणाऽपि न ब्रह्मबोधः प्राप्यते । अग्नौ तप्तं घृतं त कनाशेन तात्त्विकं रूपमाप्नोति तथैव साधकोऽपि साधनोद्दीपित: पवित्रो भवति, कष्टमपसारयति ।
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सृष्टिकर्ता परमात्मा को सत्य ही प्यारा है क्योंकि वह स्वयं सत्यस्वरूप है । जैसे निरन्तर घनों के द्वारा ताडितं सुवर्ण और लौह पवित्र होकर भूषण बनकर गले में सुशोभित होता है वैसे ही शिष्य भी यदि सद्गुरु के वाक्यरूप घनों की ताड़ना को सहन करले तो ज्ञानाग्नि से उसका अन्तःकरण शुद्ध होकर वह ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है । शुद्ध और सत्य वस्तु ही जैसे घन के चोट को सहन कर सकती है, बाकी तो उसके चोट से नष्ट हो जाती है ।
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ऐसे ही सच्चा शिष्य यदि ज्ञानाग्नि के द्वारा अपने कर्माशय को जलाकर निर्विकार, निष्काम, निष्पाप होकर ब्रह्मभाव को प्राप्त होता है । असत् शिष्य तो कामक्रोधादि द्वन्द्वों को न सहने के कारण कामक्रोधाग्नि में जलता रहता है । अतः असत् साधन साध वाला साधक भी ब्रह्मभाव को प्राप्त नहीं हो सकता । अग्नि में तपाया हुआ घृत छाछ के जल जाने से जैसे तत्त्वरूप रह जाता है, ऐसे ही साधक भी साधनों से अपने को पवित्र बनावे, तब ब्रह्मप्राप्ति के योग्य होता है ।
(क्रमशः)

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