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*साहिब का उनहार सब, सेवक मांही होइ ।*
*दादू सेवक साधु को, दूजा नांही कोइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*जयदेव जी*
*मू. छ. – जयदेव सम कलि में न कवि,*
*द्विज-कुल-दिनकर अवतर्यो॥*
*सर्वज्ञ गीत गोविन्द, अष्ट-पदई सुस्तोतर ।*
*हरि अक्षर दिये बनाय, आप प्रकटे सु प्राणवर ॥*
*तान ताल तुक छंद, राग छत्तीस गाय धुर ।*
*और विविध रागनी, तीन ग्राम हूँ सप्त स्वर ॥*
*राघव तज्ञ त्रिलोक में, गिरा ज्ञान पूरण भरयो् ।*
*जयदेव सम कलि में न कवि,*
*द्विज-कुल-दिनकर अवतर्यो॥२३०॥*
जयदेवजी के समान कलियुग में कवि नहीं हुआ है । आप तो ऐसे प्रतीत होते हैं मानों सूर्यदेव ने ही ब्राह्मण कुल में अवतार लिया है ।
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आप काव्य कला और संगीत कला में सर्वज्ञ हुये हैं । गीत गोविन्द की रचना की है । उसमें अष्टपदियाँ सुन्दर स्तोत्र हैं ।
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गीत गोविन्द लिखते समय जिन अक्षरों को आपने अनुचित समझा था, उन्हीं अक्षरों को प्राणेश्वर स्वयं हरि प्रकट होकर बना गये थे ।
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जयदेवजी तान, ताल, तुक, छन्द छत्तीस रागों को पूर्ण रूप से जानते थे । और भी विविध रागनी, तीन ग्राम रूप सप्तस्वर आदि के विद्वान थे ।
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त्रिलोकी में जो भी वाणी रूप ज्ञान है, सो सब आपकी बुद्धि में पूर्ण रूप से भरा था ।
(क्रमशः)
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