बुधवार, 25 मई 2022

*जगत् का उपकार तथा कर्मयोग*

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
*सहकामी सेवा करैं, मागैं मुग्ध गँवार ।*
*दादू ऐसे बहुत हैं, फल के भूँचनहार ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ निष्काम पतिव्रता का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(३)जगत् का उपकार तथा कर्मयोग*
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श्रीरामकृष्ण - (बंकिम के प्रति) – कामिनी-कांचन ही संसार है । इसी का नाम माया है । ईश्वर को देखने तथा उसका चिन्तन नहीं करने देती । एक-दो बच्चे होने पर स्त्री के साथ भाई-बहन के सदृश रहना चाहिए और आपस में सदा ईश्वर की बातचीत करनी चाहिए ।
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इससे दोनों का ही मन उनकी ओर जायेगा और स्त्री धर्म की सहायक बनेगी । पशुभाव न मिटने पर ईश्वर के आनन्द का आस्वादन हो नहीं सकता । ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि जिससे पशुभाव दूर हो । व्याकुल होकर प्रार्थना । वे अन्तर्यामी हैं, अवश्य ही सुनेंगे - यदि प्रार्थना आन्तरिक हो ।
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"फिर 'कांचन' । मैंने पंचवटी में गंगा के किनारे पर बैठकर 'रुपया मिट्टी' 'रुपया मिट्टी' 'मिट्टी ही रुपया' 'रुपया ही मिट्टी' कहकर दोनों जल में फेंक दिये थे ।”
बंकिम - रुपया मिट्टी ! महाराज, चार पैसे रहे तो गरीब को दिये जा सकते हैं । रुपया यदि मिट्टी है तो फिर दया परोपकार कैसे होगा ?
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श्रीरामकृष्ण - (बंकिम के प्रति ) – दया ! परोपकार ! तुम्हारी क्या शक्ति है कि तुम परोपकार करो ? मनुष्य का इतना घमण्ड, परन्तु जब सो जाता है, तो यदि कोई खड़े होकर उसके मुँह में पेशाब भी कर दे, तो पता नहीं लगता । उस समय अहंकार, गर्व, दर्प कहाँ जाता है ?
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"संन्यासी को कामिनी-कांचन का त्याग करना पड़ता है । उसे फिर वह ग्रहण नहीं कर सकता । थूक को फेंककर फिर उसे चाटना नहीं चाहिए । संन्यासी यदि किसी को कुछ देता है तो वह ऐसा नहीं समझता कि उसने स्वयं दिया । दया ईश्वर की है, मनुष्य बेचारा क्या दया करेगा ? दान आदि सभी राम की इच्छा पर निर्भर है ।
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यथार्थ संन्यासी मन से भी त्याग करता है, बाहर से भी त्याग करता है । वह गुड़ नहीं खाता, उसके पास गुड़ रहना भी ठीक नहीं । पास गुड़ रहते यदि वह कहे कि ‘न खाओ’ तो लोग सुनेंगे नहीं ।
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“गृहस्थ लोगों को रुपयों की आवश्यकता है, क्योंकि स्त्री बच्चे हैं । उन्हें संचय करना चाहिए – स्त्री-बच्चों को खिलाना होगा । संचय नहीं करेंगे केवल पंछी और दरवेश, अर्थात् चिड़िया और संन्यासी । परन्तु चिड़िये का बच्चा होने पर वह मुँह में उठाकर खाना लाती है । उसे भी उस समय संचय करना पड़ता है । इसीलिए गृहस्थ लोगों को धन की आवश्यकता है - परिवार का पालन-पोषण करना चाहिए ।
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गृहस्थ लोग यदि शुद्ध भक्त हों तो अनासक्त होकर कर्म कर सकते हैं । यह कर्म का फल, हानि, लाभ, सुख, दुःख ईश्वर को समर्पित करता है । और उनसे दिन-रात भक्ति की प्रार्थना करता है, और कुछ भी नहीं चाहता । इसी का नाम है 'निष्काम कर्म’ - अनासक्त होकर कर्म करना । संन्यासी के सभी कर्म निष्काम होने चाहिए । परंतु संन्यासी गृहस्थों की तरह विषयकर्म नहीं करता ।
(क्रमशः)

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