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*भरि भरि प्याला, प्रेम रस, अपणे हाथ पिलाइ ।*
*सतगुरु के सदिकै किया, दादू बलि बलि जाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(३)संकीर्तनानन्द में*
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आज एक गानेवाले आयेंगे, अपनी मण्डली के साथ कीर्तन करेंगे । श्रीरामकृष्ण बार बार अपने शिष्यों से पूछ रहे हैं, 'कीर्तनिया कहाँ है ?' महिमाचरण ने कहा, "हम लोग ऐसे ही अच्छे हैं ।"
श्रीरामकृष्ण - नहीं जी, हम लोगों का मिलना तो बारहों महीने लगा है ।
बाहर से किसी ने कहा, "कीर्तनिया आ गया ।"
श्रीरामकृष्ण ने आनन्द के उच्छ्वास में इतना ही कहा - "क्या आ गया ?"
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कमरे के दक्षिण-पूर्व के लम्बे बरामदे में शतरंजी बिछायी गयी । श्रीरामकृष्ण ने कहा - "इस पर थोड़ा सा गंगाजल छिड़क देना । न जाने कितने विषयी मनुष्यों ने इसे रौंदा है ।”
बाली के प्यारी बाबू की स्त्रियाँ और लड़कियाँ काली का दर्शन करने के लिए आयी हुई हैं । कीर्तन होने का आयोजन देखकर उन्हें भी सुनने की इच्छा हुई । एक ने श्रीरामकृष्ण से आकर कहा, 'वे सब पूछती हैं - क्या कमरे में जगह होगी ? क्या वे भी बैठें ?"
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श्रीरामकृष्ण कीर्तन सुनते हुए ही कह रहे हैं - 'नहीं नहीं, जगह कहाँ है ?' इसी समय नारायण आये और उन्होंने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।
श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, 'तू क्यों आया ? घरवालों ने तुझे इतना मारा !'
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नारायण श्रीरामकृष्ण के कमरे की ओर जा रहे थे; श्रीरामकृष्ण ने बाबूराम को इशारे से कह दिया - इसे खाने के लिए देना ।
नारायण कमरे के अन्दर गये । एकाएक श्रीरामकृष्ण ने उठकर कमरे में प्रवेश किया, नारायण को अपने हाथों भोजन करायेंगे । खिलाने के बाद फिर वे कीर्तन में आकर बैठे ।
(क्रमशः)

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