बुधवार, 1 जून 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ९/१२*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ९/१२*
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महल किया मुक्ता रमण, द्वादस खंभ लगाइ ।
जगजीवन सौ आप हरि, थंभा जोति जगाइ ॥९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु ने अपने विचरण को मोती महल बनवाया है जो यह संसार है इसमें दसो दिशाओं व धरती आकाश कुल बारह आधार स्तम्भ बनाये है । ओर सब में प्राण रुपी ज्योति भी जगाइ है ।
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पावक नीर समीप हरि, क्यों राखै किहिं घात ।
कहि जगजीवन देव मुनि, कोइ यहु जांणै बात ॥१०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अग्नि के समीप जल रखनेवाले प्रभु क्यों किसी का अहित करेंगे । सभी देव, मुनि जन इस बात को भली प्रकार जानते हैं कि प्रभु पर उपकारक है ।
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मांडण६ करि माया करी, मनसा करै सचेत ।
जह्जिवन घट७ जीव करि, (प्रभु)आप लेत अरु देत ॥११॥
(६. मांडण=चित्राकंन) (७. घट=शरीर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु ने चित्र की भांति यह माया रचकर मन को सचेत किया है और मन में जीव रख कर स्वयं लेते और देते हैं ।
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करी कराइ रमाड़ि८ सब, आप चलाए जाइ ।
जगजीवन सोई सबद, घट घट रह्या समाइ ॥१२॥
(८. रमाड़ि=खेल, कला)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सब प्रभु का किया कराया है जिसे वे स्वयं चलाते हैं । सच्चा शब्द प्रभु का नाम ही है जो हर हृदय में समा रहा है ।
(क्रमशः)

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