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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२०४)*
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*२०४. निज स्थान निर्णय । झपताल*
*मध्य नैन निरखूं सदा, सो सहज स्वरूप ।*
*देखत ही मन मोहिया, है तो तत्त्व अनूप ॥टेक॥*
*त्रिवेणी तट पाइया, मूरति अविनाशी ।*
*जुग जुग मेरा भावता, सोई सुख राशी ॥१॥*
*तारुणी तट देखि हूँ, तहाँ सुस्थाना ।*
*सेवक स्वामी संग रहैं, बैठे भगवाना ॥२॥*
*निर्भय थान सुहात सो, तहँ सेवक स्वामी ।*
*अनेक जतन कर पाइया, मैं अन्तरजामी ॥३॥*
*तेज तार परिमित नहीं, ऐसा उजियारा ।*
*दादू पार न पाइये, सो स्वरूप सँभारा ॥४॥*
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भा०दी०-अहन्तु स्वान्तःकरण एव ज्ञानदृशा परमेश्वरं पश्यामि । तत्स्वरूपं तु सहजज्योतिःस्वरूपमस्ति । तद्ब्रह्मदृष्टैव मे मनो मुह्यति । यतोहि तदनुपममस्ति । यत्राज्ञाचक्रे गंगायमुना सरस्वतीरूपाणां इडापिंगलासुषुम्नाख्यानां नाडीनां समागमो भवति तत्र ध्याने स्थित्वा ब्रह्म साक्षात्कारो मया विहितः । तच्च ब्रह्मसुखास्पदं प्रतियुगं मम प्रियतरमस्ति । तत्रैव ब्रह्मध्यानस्थाने तद् विराजते । तत्रैव सेवकोऽपि सेवावसरं प्राप्य स्वस्वामिसमीप एव निवसति । यत्र सेव्यसेवकभावेनोभयो रैक्यं भवति तच्च समाधिस्थानं कालादिभयविनिमुक्तं ममाभिलषितं प्रियमस्ति । अहमनेकैः साधनैरन्तर्यामिणं स्वस्वामिनं प्राप्तवानस्मि । तज्ज्योतिर्निरवधि । तस्येदृश: प्रकाश: प्रकाशते यस्यान्तो नास्ति ।
उक्तं हि श्रुतौ-
एष ते आत्मऽन्तर्याम्यमृत: । य एषोऽहन्तर्हदय आकाशस्तस्मिच्छेते सता सोम्य तदा संपन्नो भवति ।
उक्तं हि-
ध्यायेन्नित्यं भ्रुवोर्मध्ये मीलिताक्षो निरन्तरम् ।
प्रज्ज्वलद्दीपकाकारं ब्रह्मज्योतिरनामयम्॥
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मैंने अपने अन्तःकरण में ही ज्ञान नेत्रों से उस ब्रह्म का साक्षात्कार किया है । जो सहज स्वरूप ज्योतिर्मय है । उसको देखते ही मेरा मन मोहित हो गया क्योंकि वह बड़ा ही अनुपम है । आज्ञा चक्र में जहां गंगा यमुना-सरस्वतीरूप इडापिंगला-सुषुम्ना नामक नदियों का मिलन जिस भूमध्य में होता है । वहां ही उसके ध्यान में स्थित होकर उसका साक्षात्कार किया है ।
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वह सुख स्वरूप है । प्रतियुग में मुझे बहुत ही प्रिय है । उसी ध्यान स्थान में ब्रह्म विराजता है । वहां पर सेवक भी सेव्यभाव को प्राप्त होकर अपने स्वामी के पास ही रहता है । वहां पर सेव्य-सेवकता का ऐक्यभान होता है । वह समाधि स्थान कालकर्म और भय से निमुक्त होने से मुझे बडा ही प्रिय है । मैंने अनेक साधन समूहों के द्वारा मेरे स्वामी अन्तर्यामी ब्रह्म को प्राप्त किया है । उसकी ज्योति असीम है । उसका ऐसा प्रकाश प्रकाशित हो रहा है कि उसका कोई पार ही नहीं है ।
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उपनिषद् में –
यह तेरा जो आत्मा अन्तर्यामी है वह अमर है । जो यह हृदय के भीतर आकाश है उसमें वह सोता है । उस समय सद्ब्रह्म के साथ मिल जाता है । आखें मींचकर भ्रकुटियों के मध्य में निरन्तर जलते हुए दीपक की आकार वाली जो अनामय ज्योति है उसका ध्यान करें ।
(क्रमशः)

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