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*करणहार कर्त्ता पुरुष, हमको कैसी चिंत ।*
*सब काहू की करत है, सो दादू का दादू मिंत ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विश्वास का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*होत भई तिय जोर करयो् हरि,*
*छान हि बाँध रु छाय करावैं ।*
*छाय भई तब पूजन राखत,*
*नौतम उत्तम ग्रंथ बनावैं ॥*
*‘गीत-गोविन्द’ उदित्त भयो शिर,*
*मंडन मान प्रसंग सुनावैं ।*
*एह पदा मुख से निसरयो् अति,*
*सोच परयो् हरि आय लिखावैं ॥२३५॥*
उक्त प्रकार पद्मावतीजी ने सुबुद्धि पूर्वक विनय, प्रीति प्रतीति और पतिव्रत युक्त उत्तर दिया तब जयदेवजी ने जाना कि यह मेरी पत्नी हो चुकी । कारण श्री जगन्नाथ जी ने मुझ पर यह अपने बल का प्रयोग किया है । अब मेरी बुद्धि कुछ भी नहीं चलेगी । इससे उचित है कि एक छान बाँधकर छाया करलूं । ऐसा विचार करके सज्जनों द्वारा एक कुटिया बनवाली ।
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जब छाया हो गई तब एक श्री कृष्ण भगवान् की मूर्ति सेवा-पूजा के लिये पधराली । फिर जयदेवजी को एक नवीन ग्रंथ बनाने की इच्छा हुई ।
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तब “गीत-गोविन्द” आपके द्वारा प्रकट हुआ । उसमें जब राधा जी के महामान का प्रसंग आया तो उसको सुनाते समय उस स्थान पर ध्यान द्वारा प्रियाजी के प्रति श्यामसुन्दरजी का विनय इस प्रकार स्फुरित हुआ – “स्मर गरल खंडनं मम शिरसि मंडनं, देहि पद पल्लव मुदाराम्” {हे प्रिये ! कन्दर्प का विष खंडन करने वाला और मेरे मस्तक का मंडन(भूषण) अपना उदार पद पल्लव मेरे शिर पर रख दीजिये ।}
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इस पद के मुख से निकलते ही जयदेवजी को अत्यन्त सोच और संकोच हुआ कि ऐसा पद पुस्तक में कैसे लिखूं । दूसरा पद बैठ नहीं रहा था । तब यह सोच कर कि दिमाग थक गया है, पहले स्नान कर आऊं फिर दिमाग को अवकाश मिलने पर कोई अच्छा पद बन जायगा तब लिख दूंगा । वे स्नान को चले गये ।
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पीछे भगवान् श्री कृष्ण जयदेव का रूप बनाकर वहां आये और वही पद लिख दिया जो जयदेवजी नहीं लिखना चाहते थे । जयदेवजी ने आकर देखा तो वही पद पुस्तक में लिखा है । पद्मावती से पूछा – यह पद किसने लिखा है ? उनने कहा – अभी अभी आप ही तो आकर लिख गये हैं । जयदेवजी ने कहा – मैंने तो नहीं लिखा है । फिर निश्चय हुआ कि प्रभु आप ही लिख गये हैं ।
(क्रमशः)
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