सोमवार, 13 जून 2022

*नाखि नई वह कंठ लगायो ॥*

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*मीरां मुझ सौं महर कर, सिर पर दीया हाथ ।*
*दादू कलियुग क्या करै, सांई मेरा साथ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ समर्थता का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*पंडित भूप पूरी पुरुषोत्तम,*
*गीत-गोविन्द वही सु बनायो ।*
*विप्र सभा करि वाहि दिखावत,*
*च्यार दिशा पठवो सु सुनायो ॥*
*ब्राह्मण देख हँसे लखि नौतम,*
*उत्तर देत न चित्त भ्रमायो ।*
*दोऊ धरी जगनाथहिं पाँयन,*
*नाखि नई वह कंठ लगायो ॥२३६॥*
जब “गीत गोविन्द” पूर्ण होकर प्रभु से अनुग्रहित हुआ तब सब कोई पढ़ने और गाने लगे । गीत गोविन्द का ऐसा प्रचार देखकर श्री जगन्नाथ पुरी का राजा विद्वान था उस ने भी वही गीत-गोविन्द नाम रखकर एक पुस्तक बनाया ।
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और विद्वान ब्राहमणों को बुला के पुस्तक दिखाया तथा बोला – यह वही गीत गोविन्द है जो भगवान् से अनुग्रहीत हुआ है । इसको लिख२ कर पढ़ो और चारों दिशाओं में भेजो तथा सब को सुनाओ ।
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विद्वान ब्राह्मणों ने जयदेव कृत गीत-गोविन्द को देखकर राजा के गीत-गोविन्द को देखा और हँसते हुये बोले – राजन् ! वह गीत-गोविन्द तो देखिये यह है । यह दूसरा तो किसी ने नया ही लिखा है । इसको देख कर तो हमारा चित्त भ्रमित हो रहा है । दोनों में श्रेष्ठ कौन है ?
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इस भ्रम को मिटाने के लिये दोनों पुस्तकें श्री जगन्नाथजी के चरणों में रख दी गईं । तब प्रभु ने राजा वाली नई पुस्तक को अलग फैंक दिया और वह जयदेव वाला गीत-गोविन्द हार की भांति कंठ में लगा लिया ।
(क्रमशः)

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