शनिवार, 11 जून 2022

*ज्ञानी परमहंस और प्रेमी परमहंस*

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🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
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*पीवै पिलावै राम रस, माता है हुसियार ।*
*दादू रस पीवै घणां, औरों को उपकार ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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"गोलोक के गोपालों को देखकर मुझे यह ज्ञात हुआ कि वे ही सब कुछ हुए हैं । जिन्होंने ईश्वर को देखा है वे स्पष्ट देखते हैं, ईश्वर ही कर्ता हैं, वे ही सब कुछ कर रहे हैं ।”
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गिरीश - महाराज, मैंने ठीक समझा है कि वे ही सब कुछ कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - मैं कहता हूँ, 'माँ, मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री हो, मैं जड़ हूँ, तुम चेतना भरनेवाली हो; तुम जैसा कराती हो, मैं वैसा ही करता हूँ; जैसा कहलाती हो, वैसा ही कहता हूँ ।' जो अज्ञान दशा में हैं, वे कहते हैं, 'कुछ तो वे करते हैं, कुछ मैं करता हूँ ।'
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गिरीश - महाराज, मैं और करता ही क्या हूँ ? और अब कर्म ही क्यों किये जायँ ?
श्रीरामकृष्ण - नहीं जी, कर्म करना अच्छा है । जमीन जुती हुई हो तो उसमें जो कुछ बोओगे वही होगा । परन्तु इतना है कि कर्म निष्काम भाव से करना चाहिए ।
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"परमहंस दो तरह के हैं । ज्ञानी परमहंस और प्रेमी परमहंस । जो ज्ञानी हैं, उन्हें अपने काम से काम । जो प्रेमी हैं, जैसे शुकदेवादि, वे ईश्वर को प्राप्त करके फिर लोक-शिक्षा देते हैं । कोई अपने आप ही आम खाकर मुँह पोंछ डालता है, और कोई और पाँच आदमियों को खिलाता है । 
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कोई कुआँ खोदते समय टोकरी और कुदार अपने घर उठा ले जाते हैं, कोई कुआँ खुद जाने पर टोकरी और कुदार उसी कुएँ में डाल देते हैं; कोई दूसरों के लिए रख देते हैं ताकि पड़ोसियों के ही काम आ जाय । शुकदेव आदि ने दूसरों के लिए टोकरी और कुदार रख दी ।
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(गिरीश से) तुम भी दूसरों के लिए रखना ।"
गिरीश - तो आप आशीर्वाद दीजिये ।
श्रीरामकृष्ण - तुम माता के नाम पर विश्वास करना, बस हो आयेगा ।
गिरीश - मैं पापी तो हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - जो सदा पाप पाप सोचा करता है, वह पापी हो जाता है ।
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गिरीश - महाराज, मैं जहाँ बैठता था, वहाँ की मिट्टी भी अशुद्ध है ।
श्रीरामकृष्ण - यह क्या ! हजार साल के अँधेरे घर में अगर उजाला आता है तो क्या जरा जरा करके उजाला होता है या एकदम ही प्रकाश फैल जाता है ?
गिरीश - आपने आशीर्वाद दिया ।
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श्रीरामकृष्ण - तुम्हारे अन्दर से अगर यही बात हो तो मैं इस पर क्या कह सकता हूँ ? मैं तो खाता-पीता हूँ और उनका नाम लिया करता हूँ ।
गिरीश - आन्तरिकता है नहीं, परन्तु यह कृपया आप दे जाइये ।
श्रीरामकृष्ण - क्या मैं ? नारद, शुकदेव, ये लोग होते तो दे देते ।
गिरीश - नारदादि तो दृष्टि के सामने हैं नहीं, पर आप मेरे सामने हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - अच्छा, तुम्हें विश्वास है !
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सभी कुछ देर चुप रहे । फिर बातचीत होने लगी ।
गिरीश - एक इच्छा है, अहेतुकी भक्ति की ।
श्रीरामकृष्ण - अहेतुकी भक्ति ईश्वर-कोटि को होती है । जीव-कोटि को नहीं होती ।
श्रीरामकृष्ण ऊर्ध्वदृष्टि हैं । आप ही आप गाने लगे –
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"श्यामा को क्या सब लोग पाते हैं ? नादान मन समझाने पर भी नहीं समझता । उन सुरंजित चरणों से मन लगना शिव के लिए भी असाध्य साधन है । जो माता की चिन्ता करता है, उसके लिए इन्द्रादि का सुख और ऐश्वर्य भी तुच्छ हो जाता है । अगर वे कृपा की दृष्टि फेरती हैं, तो भक्त सदा ही आनन्द में मग्न रहता है । 
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योगीन्द्र, मुनीन्द्र और इन्द्र उनके श्रीचरणों का ध्यान करके भी उन्हें नहीं पाते । निर्गुण में रहकर भी कमलाकान्त उन चरणों की चाह रखता है ।"
गिरीश - निर्गुण में रहकर भी कमलाकान्त उन चरणों की चाह रखता है !
(क्रमशः)

2 टिप्‍पणियां:

  1. अनिला दीदी , सादर प्रणाम ,
    मैं 'श्रीरामकृष्ण वचनामृत' के प्रत्येक ब्लॉग को संकलित करता हूँ। और उसे बंगला और अंग्रेजी अनुवाद के साथ अपने ब्लॉग पर प्रकाशित करता हूँ। इससे बंगलाभाषी भाइयों में हिन्दी पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ी है।
    लेकिन बुधवार, 8 जून 2022 को प्रकाशित *परिच्छेद १०४*/*प्रह्लाद-चरित्र का अभिनय-दर्शन*/*(१)समाधि में*/ के बाद पृष्ठ ७१८ पर दूसरा अध्याय शुरू होता है उसका शीर्षक है - " ईश्वरदर्शन का उपाय। कर्मयोग तथा चित्तशुद्धि " जबकि आपके ब्लॉग पर शायद गलती से पृष्ठ ७९९ का अंतिम पैरा ...... " परमहंस दो तरह के होते हैं। 'ज्ञानी परमहंस और प्रेमी परमहंस " छप गया है।
    यदि इसको सुधार दिया जाए तो बड़ी कृपा होगी।
    आपका छोटा भाई
    विजय

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