बुधवार, 15 जून 2022

*द्वादश सर्ग श्लोक हि द्वादश*

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*समता के घर सहज में, दादू दुविध्या नांहि ।*
*सांई समर्थ सब किया, समझि देख मन मांहि ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ समर्थता का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*भूप उदास भयो अति सोचत,*
*जात भयो सर बूड़ मरूंगो ।*
*मो अपमान करयो् सु धरयो् वह,*
*बात छिपै कत नांहिं टरूंगो ॥*
*आप कहै हरि बूड़ मरै मत,*
*ग्रंथ न और सु ताप हरूंगो ।*
*द्वादश सर्ग श्लोक हि द्वादश,*
*मांहिं धरो सु विख्यात करूंगो ॥२३७॥*
जब जगन्नाथजी ने जयदेवजी की पुस्तक का आदर करके राजा की पुस्तक का अनादर किया तब राजा अति उदास होकर चिन्ता करता हुआ मन में यह निश्चय करके कि मैं तो अब समुद्र में डूबकर मर जाऊंगा, यही मेरे लिया अच्छा रहेगा ।
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कारण – जयदेवजी ने कहा वही मैंने कथन किया था, तो भी प्रभु ने मेरी पुस्तक को अलग करके मेरा तो अति अपमान किया है और उन जयदेव जी की वह पुस्तक कंठ पर धर कर उसको श्रेष्ठ बताते हुये उनका आदर किया है । यह मेरे अनादर की बात कहीं भी नहीं छिपेगी, इसलिये मैं तो अब मरने से नहीं हटूंगा ।
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तब भक्त वत्सल करूणाकर श्री जगन्नाथजी प्रकट होकर बोले – तुम समुद्र में डूबकर मत मरो । जयदेव जी के ग्रंथ के समान तुम्हारा तथा और कोई भी ग्रंथ नहीं है । तुम व्यर्थ ही शरीर मत छोड़ो । मैं तुम्हारा दुःख दूर करूंगा ।
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तुम ऐसा करो – जयदेव जी के गीत-गोविन्द के बारह सर्गों में अपने ग्रंथ के बारह श्लोक लिख दो । इस प्रकार उसके साथ२ तुम्हारे भी बारह श्लोक प्रसिद्ध कर दूंगा । उक्त प्रभु की आज्ञा राजा ने सहर्ष मान ली और अपने बारह श्लोक गीत-गोविन्द के बारह सर्गों में एक-एक करके मिला दिये ।
(क्रमशः)

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