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*देह रहै संसार में, जीव राम के पास ।*
*दादू कुछ व्यापै नहीं, काल झाल दुख त्रास ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विचार का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(३)क्या संसार में ईश्वर लाभ होता है ?*
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श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - तीव्र वैराग्य के होने पर वे मिलते हैं । प्राणों में विकलता होनी चाहिए । शिष्य ने गुरु से पूछा था, क्या करूँ जो ईश्वर को पाऊँ ? गुरु ने कहा, मेरे साथ आओ । यह कहकर गुरु ने उसे एक तालाब में डुबाकर ऊपर से पकड़ रखा ।
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कुछ देर बाद उसे पानी से निकाल लिया और पूछा, 'पानी के भीतर तुम्हें कैसा लगता था ?' महाराज, मेरे प्राण डूबते-उतराते थे, जान पड़ता था अभी प्राण निकलना चाहते हैं ।' गुरु ने कहा, 'देखो, इसी तरह ईश्चर के लिए जब जी डूबता उतराता है तब उनके दर्शन होते हैं।'
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“इस पर मैं कहता हूँ, जब तीनों आकर्षण एकत्र होते हैं तब ईश्वर मिलते हैं । विषयी का जैसा आकर्षण विषय की ओर है, सती का पति की ओर तथा माता का सन्तान की ओर, इन तीनों को अगर एक साथ मिलाकर कोई ईश्वर को पुकार सके तो उसी समय उनके दर्शन हो जायँ ।
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" 'मन ! जिस तरह पुकारा जाता है उस तरह तू पुकार तो सही, देखूं भला कैसे श्यामा रह सकती है ?' उस तरह व्याकुल होकर पुकारने पर उन्हें दर्शन देना ही होगा ।
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"उस दिन तुमसे मैंने कहा था - भक्ति का अर्थ क्या है । वह है मन, वाणी और कर्म से उन्हें पुकारना । कर्म - अर्थात् हाथों से उनकी पूजा और सेवा करना, पैरों से उनके स्थानों तक जाना, कानों से भगवान और उनके नाम, गुणों और भजनों को सुनना, आँखों से उनकी मूर्ति के दर्शन करना ।
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मन अर्थात् सदा उनका ध्यान - उनकी चिन्ता करना तथा उनकी लीलाओं का स्मरण करना । वाणी - अर्थात् उनकी स्तुतियाँ पढ़ना - उनके भजन गाना । "कलिकाल के लिए नारदीय भक्ति है - सदा उनके नाम और गुणों का कीर्तन करना । जिन्हें समय नहीं है, उन्हें कम से कम शाम को तालियाँ बजाकर एकाग्र चित्त हो 'श्रीमन्नारायण नारायण' कहकर उनके नाम का कीर्तन करना चाहिए ।
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"भक्ति के 'मैं' में अहंकार नहीं होता । वह अज्ञान नहीं लाता, बल्कि ईश्वर की प्राप्ति करा देता है । यह 'मैं' में नहीं गिना जाता, जैसे 'हिंचा' साग नहीं गिना जाता । दूसरे सागों से बीमारी हो सकती है, परन्तु 'हिंचा' साग पित्तनाशक है; इससे उपकार ही होता है । मिश्री मिठाइयों में नहीं गिनी जाती । दूसरी मिठाइयों के खाने से अपकार होता है, परन्तु मिश्री के खाने से अम्लविकार हटता है ।
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"निष्ठा के बाद भक्ति होती है । भक्ति की परिपक्व अवस्था भाव है । भाव के घनीभूत होने पर महाभाव होता है । सब से अन्त में है प्रेम ।
"प्रेम रज्जु है । प्रेम के होने पर भक्त के निकट ईश्वर बँधे रहते हैं, फिर भाग नहीं सकते । साधारण जीवों को केवल भाव तक होता है । ईश्वर-कोटि के हुए बिना महाभाव या प्रेम नहीं होता । प्रेम चैतन्यदेव को हुआ था ।
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"ज्ञान वह है, जिस रास्ते से चलकर मनुष्य स्वरूप का पता पाता है । ब्रह्म ही मेरा रूप है, यह बोध होना चाहिए ।
"प्रह्लाद कभी स्वरूप में रहते थे । कभी देखते थे 'एक मैं हूँ और एक तुम', तब वे भक्तिभाव में रहते थे ।
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"हनुमान ने कहा था, 'राम, कभी देखता हूँ, तुम पूर्ण हो, मै अंश हूँ; कभी देखता हूँ, तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ; और राम, जब तत्त्वज्ञान होता है, तब देखता हूँ, तुम्हीं मैं हो, मैं ही तुम हूँ ।' ”
गिरीश – अहा !
(क्रमशः)
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