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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२१०)*
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*२१०. परिचय पराभक्ति । राज विद्याधर ताल*
*जोगी जान जान जन जीवै ।*
*बिन ही मनसा मन हि विचारै, बिन रसना रस पीवै ॥टेक॥*
*बिनही लोचन निरख नैन बिन, श्रवण रहित सुन सोई ।*
*ऐसै आतम रहै एक रस, तो दूसर नाम न होई ॥१॥*
*बिन ही मार्ग चलै चरण बिन, निहचल बैठा जाई ।*
*बिन ही काया मिलै परस्पर, ज्यों जल जलहि समाई ॥२॥*
*बिन ही ठाहर आसण पूरे, बिन कर बैन बजावै ।*
*बिन ही पावों नाचै निशिदिन, बिन जिभ्या गुण गावै ॥३॥*
*सब गुण रहिता सकल बियापी, बिन इंद्री रस भोगी ।*
*दादू ऐसा गुरु हमारा, आप निरंजन जोगी ॥४॥*
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भा०दी०-साधननिरता योगिन: प्रपञ्चजातं मायिकं मत्वा सत्यस्वरूपं परमात्मानं चिन्तयन्तो जीवन्मुक्ता भवन्ति । सांसारिकभावनानिवृत्या ते स्वस्वरूपं परिचिन्वन्ति । रसनां विनैव परमात्मानन्दरसमास्वादयन्ति । बाह्यनेत्राभ्यां विनैव स्वस्वरूपावस्थानं पश्यन्ति । श्रवणं विनैव ते विचारात्मकमात्मस्वरूपं ब्रह्मनिश्चयं श्रृण्वन्ति । यद्येवमात्मस्वरूपेऽद्वैते ब्रह्मणि मन: स्थैर्य जायेत तर्हि कदापि द्वैतं नोदेति । यश्च योगी वाह्यार्थानुसंधानं परित्यज्य पद्भ्यां विनैवान्तरसाधनैर्निष्कलं ब्रह्माधिगच्छति तदा शरीरं विनैव जीवात्मपरमात्मानावु भावप्युपाधिविलयेऽभिन्नौ भवतो जले जलमिव ।
तदुक्तं विवेकचूडामणौ-
घटे नष्टे यथा व्योम व्योमैव भवति स्फुटम् ।
तथैवोपाधिविलये ब्रव ब्रह्मवित् स्वयम्॥
क्षीरं क्षीरे यथा लिप्तं तैलं. तैले जलं जले ।
संयुक्तमेकतां तथाऽऽत्मन्यात्मविन्मुनिः ॥
तदा स योगी बाहासनं विनैव परब्रह्माणि दृढासनं विधाय तिष्ठति । बाह्यहस्ताभ्यां विन वा नाहतनादानन्दरूपां वीणां वादयति । पद्भ्यां विनैव केवलं भावमयै:पद्भिरहोरात्रं प्रेम्णा नृत्यति । जिह्वां विनैव ध्यानावस्थायां मनोवृत्या प्रभोर्गुणानुगानं गायति । परब्रह्मपरमात्मा सर्वगुणातीतो
व्यापकश्चेतिबुद्ध्वा बाह्येन्द्रियैर्बिना ब्रह्मानन्दमुपभुक्ते. । ईदृशोयोगी साक्षादीश्वर एव भवति । कि बहूक्त्या स च नो गुरुत्वं भजते ।
उक्तं हि कठे-
यथोदकं शुद्धे शुद्धमासिक्तं तादृगेव भवति ।
एवं मुनेर्विजानत: आत्मा भवति गोतम ॥
मुण्डके च-
यथानन्द्यः स्पन्दमाना: समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय ।
तथा विद्वान् नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥
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योगीजन साधनों के द्वारा प्रपञ्च को मिथ्या मानकर तथा परमात्मा को जान कर जीवन्मुक्त हो जाते हैं । वे जीवनमुक्त महात्मा सांसारिक वासनाओं से सदा मुक्त रहकर मन बुद्धि से ब्रह्म का ही विचार करते रहते हैं । वे रसना के बिना ही अन्तःकरण से स्वरूपानन्द रस का पान करते हैं । श्रवण के बिना ही ब्रह्म का निश्चय रूप विचारात्मक श्रवण करते हैं यदि इस प्रकार अद्वैत ब्रह्म में मनःस्थिति हो जाय तो फिर द्वैत का नाम भी नहीं रहे ।
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जो योगी पैरों के बिना ही बाह्यार्थानुसन्धान को त्याग कर निश्चल ब्रह्म में स्थित है उसका जीवात्मा शरीर के बिना ही जल में जल की तरह परब्रह्म परमात्मा में मिलकर एक हो जाता है क्योंकि केवल उपाधि से ही भिन्नता थी उस उपाधि नाश से दोनों एक ही हो जाते हैं ।
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जैसे विवेकचूडामणि में कहा है कि – जैसे घटाकाश घट उपाधि से भिन्न प्रतीत होता है । घट के नाश से घटाकाश महाकाशरूप ही हो जाता है । ऐसे ब्रह्मवेत्ता अपनी जीवरूप उपाधि को त्याग कर ब्रह्मरूप ही हो जाता है । जैसे दूध में दूध को, तैल में तैल को, जल को जल में मिला देने से तीनों दूध तैल तथा जलभिन्न नहीं रहते, एक हो जाते हैं इस अवस्था में योगी बाह्य आसन के बिना ही सदा ब्रह्म में ही उसका आसन रहता है । अर्थात् ब्रह्मनिष्ठ हो जाता है ।
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वह योगी हाथों के बिना ही अनाहत नादानन्द रूपी वीणा बजाता रहता है । अर्थात् अनाहतनाद के श्रवण में मस्त रहता है और पैरों के बिना ही केवल भावमय पैरों से दिन रात प्रेम से नाचता रहता है । बिना ही जिव्हा के ध्यानावस्था में मन की वृत्ति से प्रभु के गुण गान करता रहता है । परमात्मा सब गुणों से अतीत सर्वव्यापक हैं, ऐसा मान कर बाह्य इन्द्रियों के बिना ही ब्रह्मानन्दरस का आस्वाद लेता रहता है । ऐसा योगी साक्षात् ईश्वरतुल्य ही होता । ईश्वर होने से ऐसे योगी को मैं अपना गुरु मानता हूँ ।
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कठ. में कहा है कि – हे गोतम ! जिस प्रकार निर्मल जल में मेघों द्वारा बरसाया हुआ निर्मल जल मिलकर वैसा ही निर्मल हो जाता है उसी प्रकार एक मात्र सब कुछ ब्रह्म ही है, ऐसा जानने वाले मुनि की आत्मा संसार से उपरत होकर ब्रह्मरूप ही हो जाती है ।
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मुण्डक में इसी भाव को कहा हैं कि – जैसे बहती हुई नदियां नाम रूप को छोड़कर समुद्र में विलीन हो जाती है वैसे ही ज्ञानी महात्मा नाम रूप उपाधि से मुक्त होकर उत्तम से उत्तम दिव्य परम पुरुष परमत्मा को प्राप्त हो जाता है ।
(क्रमशः)

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